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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ २० नेमिनाथचरितनिरूपणम् मुजा-या सगाफ या=गरीरारण यथा स्यात्तथा शरीरमकोचन कला पमाना कम्पमाना निसरी-नि-उपविष्टा । 'तरम्' इत्यत्र अव्ययसर्वनाम्नान प्रास्टे" इनि म्यायिनोऽन्यत्यय ॥३॥ ततो यनात नदुन्यते-- __ मृगम्-अहं सोवि रायपुत्तो, समुद्दविजयगओ। भीयं पवेयि दृष्ट्र, इंम वमुदाहरे ॥३०॥ डाया- मोऽपि राजपुत्र', समुद्रविजयाननः । भीता मपिता दादा, इट वाक्यमुनगररत् ।।३६। टीका-'अह' इत्यादि। अथअनन्तर समुद्रविजयागज'समुद्रविजयपुनो राजपूत्र. स पनेमिति भीताजस्ता प्रवेपिता-प्ररम्पमानाहीं ना राजीमतो दृष्ट्वा दरमाण वाक्यमुदाहरत्-उक्तवान् ॥३६॥ समय (पाहाहिं सगोफ काउ-भुजाभ्या मगोप कृत्वा) अपने दोनो हाथों से शरीर को आकृत करक (वेवमाणी-वेपमाना) भय से कपित हाती हई (निसीयह-निपीदति) बैठ गई ॥३०॥ उसके बाद जो हुआ सो करते है- अहमो' इत्यादि । अन्वयार्थ--(अह-प्रथ) इसके बाद (ममुद्दविजयगओ-समुद्रपि जयाङ्गज) समुद्रपिजय के जन जात उन (गयपुत्तो-राजपुत्र) राजपत्र रथनेमि मयनने भी (मीय-मीताम् ) त्रस्त एव (पवेडय-प्रवेपिताम) कम्पायमान यावी राजीमती पो (द-दृष्टा) देवकर (इम वकमुटाहरेइदम पाग्यम् उदाहरत्) उससे इस प्रकार बोले ॥३६॥ भीया-भीता भात पू 0 15 मने तो ते १५1 पाहाहिं सगीफ मारपाहुभ्या सगोप क वा पाताना मन्ने लाथाथी पातानश २२ भूम सीर मनुमवती वमाणी-वेपमाना ४ ५ an मने १४२ निसीयई-निपीति બેસી ગઈ પા २ ५ २ मन्यु तेने ४३ छ-" साया सन्याय-अह-अथ से पछी समुविजयगो-समुद्रविजयाज • मुद्र Onयना मत थे राजपने-राजपुर पुत्र यिनभि म यते पाय भौयभीताम् त म पवेदय-प्रवेपिताम् ४ पायमान सामी मतीने 8-मा ईने दम वरमुदाहरे-इदम् वाक्यमुनाहरत् भने मा प्रा३ ४यु ॥3॥
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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