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________________ प्रियदशिनी टीका अ २० मृगापुनचरितवर्णनम् डाया---एवमुक्तो नरेन्द्र 'स, मुसम्भ्रान्तः मुनिस्मितः । वचनम् अभुतपूर्व, साधुना विस्मयान्वित. ॥१३॥ 'पवयुत्तो' इत्यादि। विस्मयान्वित' पूर्वमपि साधो स्पापण्यादि दर्शनेन विस्मय माप्तः स नरेन्द्र' साधुना एव-पूक्तिगाथानुसारेण अश्रुतपूर्वम् पूर्व न कदापि श्रुत, पच नम् उक्त. अभिहित , अतए-मुसभ्रान्तः अत्यन्त व्याकुलित , सपिस्मिता जतिशयाधर्यसम्पन्नश्च जातः ॥१३॥ ततो राजा माह-- मूम्--आसौ हत्थी मणुस्सा में, पुर अतेउरं च में ॥ भुजामि माणुसे भो', आणी ईस्तरिय च मे ॥१४॥ ऍरिसे सपर्यग्गम्मि, सव्वकामसमप्पिए। कह अाहो भवंड, मा हुँ भते । मुसबएँ । ॥१५॥ डाया- अश्वा हस्तिनो मनुष्या मे. पुरमन्त पुरच मे। भुजे मानुपान्, भोगान याज्ञा ऐश्वर्य च मे ॥१४॥ ईदृशे सम्पढग्रे, सर्वकाम समर्पिते । क्थम् अनायो भवति, मा हु भदन्त ! मृपा चादीः ॥१५॥ फिर जो हुआ सो रहते है-'एव' इत्यादि। अन्वयार्थ (विम्यन्निओसो नरिंदो-विस्मयान्वितः स नरेन्द्र.) पहिले से हि साधु के रूप लावण्य आदि के देखने से विस्मय को प्रास राजा जव (साहुणा एव अस्सुयपुरुष वयण वुत्तो-साधुना एवम् अभुतपूर्व वचनम् उक्तो) मुनिराजने ऐसा अभुतपूर्व वचन कहा तो उनके चित्तमे एक प्रकार को (सुसभतो सुचिम्हिओ-सुसभ्रान्त सुधि स्मित) व्याकुरता जग जाने से बडा भारी अचरज हुआ ॥ १३ ॥ पछी मन्यु तन छ-"ए" या भन्या-विम्हयन्निओ सो नरिंदो-विस्मयान्त्रित स' नरेन्द्र प्रथम નજરે જ સાધુના રૂપ-લાવણ્ય જોઈને વિસ્મય પામેલા રાજાને જ્યારે સારા एर अस्पुयपुच्च वयण युत्तो-साधुना एवम् अश्रुपूर्व वचन उक्तो मुनिर मानणे सश्रत पयन छु त्यारे तेमना थित्तमा न सुसभतो सविम्हिओसुसभ्रान्त. सविस्मित व्याणता नगी नवाथी धूम सारे सन्य२१ थयु ॥१३॥
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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