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________________ प्रियाशिनी टीका अ २० मृगापुश्चरितयणनम् यदि चानायतैर उतागीकारहेतुम्तर्हि-- मृल्म्-होमि नौहो भयताणं, भोगे भुजाहि सजंया ।। मित्तनोडपरिवुडो, माणुस्स खु सुदुल्लह ॥११॥ छाया--भवामि नाथो भदन्ताना, भोगान् इक्ष्य सयत!। मित्रज्ञातिपरिटतो, मानुप्य खलु मृदुलेमम् ॥११॥ टीश--होमि' इत्यादि। हे सयत ! अह भदन्ताना=पूज्याना युप्माक नाथो भवामि । त्व मित्र. जातिपरित मिर्जातिभिश्च युक्तो भोगान् मनोज्ञगदादीन् भुइव। मनि नाथे मनि तर मित्राणि नातयो भगाध मुलमा इति भाव' । यतो मानुय% मनुष्यजन्म ग्यलु-निश्चयेन मुदुर्लभम् ॥१२॥ 'यदि आप क माउ बनने मे अनाथता ही कारण है तो मैं आपका नार हो जाऊँ' इस प्रकार के अभिप्राय को लेकर राजा कहते हैं-- 'होमि' इत्यादि । अन्वयार्थ-(सजया!-हेसयत) हे सयत । (भयताण नाही होमिभदन्तानां नायो भनामि) आप रा मै नाथ होताह । (मित्त नाइ परिवुडो भोगे भुजाहि-मित्रज्ञाति परिवृत भोगान् भुड्य) अत आप मित्र एव जातिजनों से युक्त होकर मनोज शब्दादिक भोगो को भोगें। अपने को अनाय न समझे। मेरे जैसे व्यक्ति के नाम होने पर आप के क्या कमी रह सकती है। क्या मित्रजन क्या जातिजन क्या भोग ये सभी सुलभ है। क्यों व्यर्थ के इस त्याग की अवस्था में पड़ गये हो । (मागुस्स ग्बु सुदुल्लह-मानुप्य ग्बल सुदुर्लभम् ) यह मनुष्य पर्याय આપના સાધુ બનવામાં જે અનાથતા જ કારણભૂત છે તે હું આપને નાથ य " मा प्रारना मनिमायने सन २० छ-'होमी" यह मन्वयार्थ-सजय-सयत उसयत भयताण नाहोहोमि-भदन्ताना नाथोभवामि सापना हुनथ 6 छु मित्तनाइ परिवडो भोगे भुजाहि-मित्रज्ञाति परिवृत्ती भोगान मुश्व माथी सा५ भित्र मने शिनाथी युक्त मानाने भने । શબારિ ભેગને ભેળ પિત ને અનાથ સમજે મારા જેવી વ્યક્તિ નાથ વવાથી આપને હવે શની કમી રહેવાની છે? મિત્રજન, જ્ઞાતિજન, તેમ જ ભેગ એ બધું સુલભ શા માટે ૦૫ર્થમા આ ત્યાગની અવસ્થામાં પડી - થા છે ? જાળm खु सुदुलह-मानुष्य खलु सुदुर्लभम् मा मनुष्य पर्या घडी घडी मत नया આ મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ મહાદુર્લભ જાણીને એને ભેગે ભેળવીને સફળ રે ૧u
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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