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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ १९ मृगापुश्चरितवणनम् रोहणात्कमरहित सन् खलु-तिश्चयेन अची दिश भकामति कर्पण गन्छति सर्गोपरिम्पाने स्थितोभनि मुक्तो भवतीति यावत् । रोगाभावे भिक्षार्थ गमन जिनकलिकापेक्षया प्रोक्तम् ॥२॥ मृगचर्या मेव स्पष्टयति-- मूत्रम्--जेहा मिएं एग अणेगचारी, अणेगवासे धुबंगोयरे ये । __ एवं मुणी गोयरिय पैविटे, नो"हीलेए नो"वियें खिसडनी ॥८३॥ छाया-यथा मृगाः एक. अनेचारी, अनेकवासो ध्वगोचरश्च। एष मुनिर्गोचर्या प्रविष्टो, नो हीलयति नोऽपिच खिमयति ।।८३॥ टीमा--'जहा' इत्यादि। ___ यथा मृग' एका-एकाकी अद्वितीय., अनेकचारी-अनियतेषु अनेकेषु स्थानेषु भक्तपानार्थ चरितु शीलमस्येति, तथा, अनेकवनमरस्सु च भक्त पानार्थ सचरणशीलः, अनेकवासः, अनेकनवासो निवासो यस्येति तथा, अनि विशिष्ट सम्यग्जान-आदि भावसे शुरूध्यान पर आरूढ हो जाता है और इस तरह वह कर्ममल रहित होता हुआ (उदिस पक्कमई-उची दिशम् प्रक्रामति) उर्वदिश-मुक्तिस्थान- में जाफर विराजमान हो जाता है। रोग के अभाव में मिक्षा के लिये गमन जिनकल्पी को अपेक्षा से कहा गया जानना चाहिये ॥२॥ अब मृग चर्या को स्पष्ट करते हुए कहते है-'जहा मिगे' इत्यादि । अन्वयार्थ-(जहा-यया) जिस प्रकार (एणमिग-एक मृगः) अकेला मृग (अणेगयारी-अनेकचारी) अनियत अनेक स्थानों मे भक्तपान के निमित्त फिरा करता है और (अणेगवासो-अनेकवास.) अनियत अनेक સમગ્રજ્ઞાન આદિ ભાવથી શુકલધ્યાન ઉપર આરૂઢ થઈ જાય છે અને આ રીતે એ ४भ भ परना ने उदिस पक्मई-उची दिशम् प्रक्रामति भुक्षित स्थानमा જઈને બિરાજમાન થાય છે રેગના અભાવમાં ભિક્ષા માટે ગમન છલકીની અપેક્ષાથી કહેવાએલ છે એમ જાણવું જોઈએ ૮૨ वे भृगययाने २५८ ४२ता ४ छ-"जहा मिगे" त्यादि । ___ अन्वयार्थ --जहा-यथा रे प्रभारी एग मिये-एकः मग' मे मृत अणेगचारी-अनेकचारी नियत शने तपान-माहाराणी भाटेश्या ४२छे भने अणेगवासे-अणेगवास: मनियत भने स्थानमा रहा ४२ छ तया
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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