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________________ प्रियदर्शिनी टोका स १८ श्री श्रीमद्-अरमायकथा २४१ - - तथामृलम्-सागरत चडत्ता ण, भरह नर वरीसरो। अंरो ये अरय पत्तो, पत्तो गडेमणुत्तरं ॥४०॥ छाया-सागरान्त त्यक्त्वा बलु, भारत नरवरेश्वरः । __ अरथ आज प्राप्त , प्राप्ता गतिमनुत्तराम् ॥४०॥ टीका-'मागरत' इत्यादि । नरवरेवर नराधिपः अर =भरनामक सप्तमश्चक्रवर्ती भरजा वैराग्य प्राप्तः मागरान्त भारत-भरतक्षेत्र च सलु निश्चमेन त्यक्त्या, अष्टादशतीर्थदरो मृत्ला अनुत्तरापर्वोत्कृष्टा गतिमिद्विगति प्राप्तः ॥४०॥ श्रीमद-अरनायकाआमीदिह-जम्हीपे पूर्व विदेहे वत्सनामके विमये मीमापुर्या महापरा ममी धनपति म नरपति. । म हि काचित्सनातवैराग्य समन्तभद्राचार्य तथा-'मागरत' इत्यादि। अन्वयार्थ (नरवरीमरो-नरवरेश्वर.) नराधिप (अरो-अरः) अर नामक सप्तम चक्रवर्तीने (अरय पत्तो-अरजः प्राप्तः) वैराग्य-प्राप्त करके (सागरत भरह-सागरान्तं भारतम्) इस सागरान्त भरतक्षेत्रका (ण-म्बल) निश्चय से (चहत्ता-त्यत्तवा) परित्याग करके (अणुत्तर गड पत्तो-अनुत्तरा गतिं प्राप्तः) सर्वोत्कृष्ट सिद्विगति को प्राप्म किया। ये अठारहवें तीर्थकर हुए है। इनकी क्या इस प्रकार है इस जदीप के अन्दर पूर्वविदेह मे वत्मनामका एक विजय है। उसमें एक सीमापुरी नामकी नगरी थी। यहां का शासक धनपति नामका महा पराक्रमी राजा था। किसी समय इन्होंने वैराग्यभावकी तथा--"सागरत" त्याlt ! सन्याय-नरखरीसरो नरावि५ अरो-अरःसर नामना सातमा पतीश अरयपत्ती-अरज. प्राप्त राय प्राप्त ४शने सागरत भरह-सागरान्तम् भारतम् मा सान्त सरतक्षेत्रमाण-खलु निश्ययी चइता-स्यक्तवा परित्याग ४शन अनुत्तर गइ पचो-अनुत्तरा गर्ति प्राप्तः सवाष्टसिदगतिन प्रात ४री मा मढारमा તીર્થ કર થયા છે. એમની કથા આ પ્રમાણે છે આ જમ્મટીપની અંદર પૂર્વ વિદેહમા વત્સ નામg એક વિજય છે તેમાં સીમાપુરી નામનુ નગર હતુ ત્યાના શાસક ધનપતિ નામના મહાપરાક્રમી રાજા હતા કેઈ સમય એમને વિરાગ્યભાવની પુષ્ટિથી સમન્તભદ્રાચાર્ય નામના એક "
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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