SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७ प्रियदर्शिनी टीका अ. २७ पापथमम्बर पम छाया--अम्धिरासनः कौकुचिकः, पर तन निपीदति । आसो अनायुक्त , पाप रमण इत्युच्यते ॥१३॥ टीका-'अधिरामणे' इत्यादि । य माधु. अम्बिरामन =स्थिरासनयनितो भाति, तथा य. कौकुचिक:भण्ड वेण्डाकारको भवति । तथा यो यत्र तत्र-परजस्कादिम्मानेऽप्रामुकभूभी च निसी-ति-उपविशति, तथा य. ग्रामने अनायुक्त अनुप्रयुक्तो भवति एता. टश सापु पापश्रमण इत्युच्यते । १३|| चि --- मुरम्--ससरक्वंपाओ सुयंड, सेज ने पडिलेहड । सथारए अणाउत्तो पावसमणे ति वुचंड ॥१४॥ छाया-सरजस्कपादः स्वपिति, शम्या न प्रतिलेखयति । सम्तारके अनायुक्त , पापश्रमण इत्युच्यते ॥१४॥ टीमा-'मसरक्वपाओ' इत्यादि । य. साधु. सरजस्कपाद. सचित्तरज स ठग्नचरण सन् स्वपिति शेते, तपा-शग्याप्त न प्रनिलेवयति, न च प्रमार्जयति । तथा-सम्तारके तथा-'अथिरामणे' इत्यादि अन्वयार्थ-जो साधु (अथिरासगे अस्थिरासन ) स्थिर आसनसे रित होता है तथा (कुकडा-कौकुचिक') भाण्ड चेष्टा करनेवाला होता है तथा (जत्य तत्व निमीय द-यत्र तत्र निपीदति) जही तही अर्थात् मचित्त रजवाली तथा योजादियुक्त अप्रामुक भूमिपर बैठता है तथा (आसणम्मि अगाउत्ते-आसने अनायुक्त.) आसन मे उपयोग रहित होता है ऐसा साधु (पावसमणेत्ति बुच्चइ-पापश्रमण इत्युच्यते) पापश्रमण कहलाता है ॥१॥ तथा-"अथिरासणे" त्याह। मन्याय-2 साधु अथिरासणे-अस्थिरासन यि सामयी डाय छ तथा कुकुइए-कौकुचिक मायवेडा ४२वाडायचे, या जत्य तत्व निसीय . द-यत्र तत्र निपीदति या त्या अर्थात् सायत्त २०४१Lil तथा [ युत मासु भूमि ५२ मेसे छ, तथा आसमम्मि अगाउरे-जामने अनायुक्त. सनन पये। ४२ता नवी, मेवा माधु पावसमणेत्ति वुन्चर-नापश्रमगइ च्यते ५५मधु કહેવાય છે કે ૧૩ !
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy