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________________ - on- - - - ওশান उत्पथेन पर्जितः-उन्मार्गभिन्न, उक्तः । उत्पथे उनतो दि आत्मविराधनादयो दोपाः सभवन्त्येष ॥५॥ ___अथ यतनामाहमूलम्-दव्यओ खेतओ चेवे, कालेओ भावंओ तहा। जयणा चउव्विहा वुत्ता,'त में" कित्तयओ सुंग ॥६॥ छाया-इन्यतः क्षेत्रतश्चैव, पालतो भारतस्तथा।। . यतना चतुर्विधा उत्ता, ता में कीर्तयतं वृणु ॥६। टीका--'दन्चओ' इत्यादि। द्रव्यत• क्षेत्रतश्चैव कालतस्तथा भारतो यतना भाति, इत्येव यतना चतुर्विधा उक्ता कथिता हे शिष्य ! ताम=यतना क्ययतो मेन्मम सकाशाद श्रृणु ॥६॥ मूलम् दव्वओ चखुसा, पेहे, जुर्गमित्त तुं खेतओ। कालओ जीव रीएजा, उवैउत्ते ये भावओ ॥७॥ छाया--द्रव्यतश्चक्षुपा प्रेक्षेत, युगमात्र तु क्षेत्रतः । कालतो यावद् रीयत, उपयुक्तश्च भावत' ॥७॥ टीका-दव्यओ' इत्यादि । द्रव्यतः द्रव्यमाश्रित्य यतना-चक्षुपा प्रेक्षेत जीवादिद्रव्यमवलोकयेदिति । रात्रि मे आखो से यथावत् पदार्थों का अवलोकन नहीं हो सकता है। मार्गशब्द से यहा उत्पथभिन्न रास्ता गृहीत हुआ है। उत्पथ का वर्जन यहा इसलिये किया गया है कि उत्पथ से गमन करने वाले साधु को आत्मविराधनादिक दोपो का पात्र होना पडता है ॥५॥ अब यतना का स्वरूप कहते है-'दव्वओ' इत्यादि । यतना द्रन्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की अपेक्षा से चार प्रकार की कही गई है। मै अब इन का वर्णन करता हूँ सो सुनो ॥६॥ અવલોકન થઈ શકતું નથી માર્ગ શબ્દથી અહી ઉત્પ-ભિન્ન રસ્તે એ પ્રમાણે કહેવામા આવેલ છે ઉત્પથનું વજન અહીં એ માટે કરાયેલ છે કે ઉત્પથી ગમન કરનાર સાધુએ આત્મવિરાધનાદિક દેષને પાત્ર થવું પડે છે પણ यतनाना २१३पने ४ामाआवे छ "दव्यओ" त्याहि । યતના દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ તથા ભાવની અપેક્ષાથી ચાર પ્રકારની કહેવામાં આવે છે હું હવે એનું વર્ણન કરૂ છું તેને સાભળે
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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