SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1091
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियदर्शिनी टीका अ २३ श्रीपा बनाथचरितनिरूपणम् व यमानाना-पीडपमानानाजीयाना क्षम-या यादि रहित, गिर-सोपद्रव रहितम्, अनागर-पीडार्जित च स्थान किं मन्यसे अवयसे ? 'सारीरमाणसे दुख' इत्यत्र तृतीयार्थ प्रथमा ।।८०॥ गीतमः प्राहमृ . -अस्थि एंग धुंब ठाण लोगग्गमि दुरारुह । जत्य नत्यि जरामच्चू, वाहिणो वेयणा तेहा ॥१॥ डाया--अस्ति एक ध्रुप स्थान लोकाग्र दुरारोहम् । यत्र नम्तो जरामृत्यू, व्याधयो वेदनास्तथा ॥८॥ टीका--'अत्यि' इत्यादि। लोग चतुर्दगरात्मकस्य लोम्याग्रभागे पम् अद्वितीय दरारोह= दुखेनारुह्यते यत् ना दुर्लभेन सम्यग्दर्शनादि रन्नत्रयण आरोढ शक्य ब्रा ण पाणिण-शारीरमानसर्दुग्वै' नयमानाना प्राणिनाम् । शारीरिक व मानसिक दु ग्वों से नाध्यमान ससारी जी का (सेम सिवमणावा ठाण किं मन्नमी-क्षेम शिवमनायध स्थान मिन्यसे) आपि व्याधि से रहित, मर्व उपद्रवो से बिहीन तथा दुग्वर्जित म्यान कौनसा है ॥८॥ केशी अमण के इस प्रश्न को सुनकर गौतमस्वामी ने कहा-- 'अत्थि' इत्यादि। ___ अन्वयार्थ-हे भदन्त । चौदह १४ राजु प्रमाण उँचे इस (लोगम्मि दुरारोह धुत्र ठाण अत्यि-लोकोग्रे दुरारोह व स्थान अस्ति) लोक के अग्रभाग मे एक दुरारोह स्थान है। जो प्राणी सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय से युक्त हो जाते है वे ही इसको प्राप्त कर सकते ह अन्य नहीं, इसी लिये पाणिण-शारीरमानसर्दुग्वैव यमानाना प्राणिनाम् All२४ भने मानभिमेथी या रस सेवा मसारी ल्वाने ग्वेम सिवमणावाह ठाण किं मन्नसी-क्षम शिवमनागाध स्थान किं मन्यसे माथि व्याधियी २हित ये स वामी વિહીન તથા દુ ખવત સ્થાન આપે કનુ માનેલ છે ? તe शी अभाना सा प्रश्न मारामान गो भिस्वाभीये धु-" अस्थि छत्याहा स-क्या---- लोगग्गम्मि दुरारोह धुन ठाण अथि-लोमा दुरारोह ध्रुव स्थान अस्ति योग प्रमाणु या माना गमागमा : महनतथी પહેચાય તેવું સ્થાન છે જે પ્રાણ સન્ દર્શન આદિ રત્ન નયથી યુકત થઈ જાય છે એજ અને પ્રાપ્ત કરી શકે છે, બીજા કેઈ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. આ કારણથી
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy