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________________ - - - . 5 प्रियदर्शिनी टीका म २३ श्रीपार्श्वनाथचरितनिरूपणम चतुर्गतिलक्षणे ससारसमुद्रे नीयमानाना माणिना पमः श्रुतचारित्रलपण', द्वीप -संसारमहोदधिवेष्टितोऽपि मुक्तिपदकारणतया पौ न जगमरण वेगेन पतिहन्तु गम्यते । अत स धर्मों द्वीप इव अम्ति । अत एव विवेक्निम्त माश्रित्य तिष्ठन्तीति तो स धर्य प्रतिष्ठानिश्चल स्थान चास्ति । जरामर गवेगेन ससारजलाधी वाद्यमानाना माणिना स धर्मो गति. आश्रयस्थानम्। तदिनपुरसितस्थानाभावात् स धर्म उत्तम-सर्वोत्कृष्ट शरण-रक्षणस्थान चास्ति ।।६८॥ पुन केशी पाहमूलम्साह गोयंम पंण्णा ते, छिन्नो मे ससओ इमों । अण्णो' वि" संसओमंज्झ, ते" में कहेसु गोयमा ॥१९॥ छाया--साधु गौतम ' प्रज्ञा ते, छिन्नो मे सायोऽयम् । अन्धोऽपि सगयो मम, त मे स्थर गातम । ॥६९|| टीकास्त्रा वारा पूर्ववद् वोध्या।६९॥ मानानां प्राणिना ) सरा, मरण रूप महामल के प्रवाह से चतुर्गतिरूप इस ससारसमुद्र में बहाये गये प्रणियों के विरे (उत्तम सरण-उत्तम शरणम्) उत्तम गरण स्वरूप तथा (गई-गति ) गति रूप (पइसा य-प्रतिष्ठा च) आश्रय स्थान रूप एयवस्थान समान एक (धम्मो दियो-पर्म: डिप.) धर्म ही उत्तम दीप है। इस धर्म के सिवाय और दूसरा कोड सुरक्षिन स्थान नहीं है ॥६॥ केशीश्रमणने कहा---'साह' इत्यादि । हे गौतम । आपकी बुद्धि अच्छी है आपने मेरे सशय को दर कर दिया है फिर भी मेरे सशय को दूर करे ॥॥ ગાળનામ જરા, મગરૂપ મહાજનના પ્રવાહથી ચતુર્ગનિરૂપ આ ન મર समुद्रमा पडता प्राणायाने भाटे उत्तम सरण-उत्तम शरणम् उत्तम शरए ९५३५ तया गई-गति जति३५ साय यान३५ अने अवस्थान सभान ये पम्मो दिवोधर्म. द्विप धमत्तम दी५७ मा घना पट्टा य-पतिप्टा च सिपाय બીજુ કેઇ પણ સુરક્ષિત સ્થાન નથી ૬૮ शी श्रमाणे न्यु -"साह" त्यहि હે ગૌતમ આપની બુદ્ધિ સારી છે, આપે મારા આ નયને દૂર કરી દીધું છે છના પણ એક બીજા સશયને દૂર કરે ૬લા
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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