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________________ प्रियदर्शिना टीका अ २३ श्रीपार्श्वनाथचरितनिरूपणम् उक्तमेवार्थ स्पष्टयति- मूल्म - पुरिमाणं दुर्धिसोज्झो उं, चरिमाण दुरणुपीलओ । कंप्पो मज्झिमँगाण तु, सुविसोझो सुपलओ ॥२७॥ छाया -- पौरस्त्याना दुर्विशेो यस्तु, चरमाणा दुरनुपालकः । कल्पो मध्यमकाना तु, सुविशो यः सुपालक. ॥२७॥ टीका - 'पुरिमाण' इत्यादि । पोरस्त्याना=प्रथमतीर्थङ्करशिष्याणा कल्पः = साध्वाचार. दुर्विशोध्यः दुःखेन निर्मलता नेतु शक्यः । ते हि जुजडत्वेन गुरुणाऽनुशिष्यमाणा अपि तद्वाक्य सम्यग् ज्ञातु न समर्थो भरन्तीतिभाव । चरमाणाम् = अन्तिमतीर्थङ्करशिष्याणा कल्प. =सा-नाचार• दुरनुपालक. - दुःखेनानुपाल्यते, दुरनुपाल• स एव दुरनुपालक'दुखेनानुपालनीय, । भगवतो वर्द्धमानस्य साधवो गुरुवाक्य कथचिज्जानन्तोऽपि होने के कारण पूज्ञ है (तेण धम्मे दूहा कए - तेन धर्मों द्विधा कृतः) इस कारण एक कार्य मानने पर भी धर्म को द्विविधरूप से कहा है ॥२६॥ उक्त अर्थ को स्पष्ट करते है- 'पुरिमाण' इत्यादि । ९०९ अन्वयार्थ -- ( पुरिमाण - पौरस्त्यानाम् ) प्रथम तीर्थकर के शिष्यों का (कप्पो - कल्प.) साबाचार (दुव्विसोज्यो- दुर्विशोध्य ) दुर्विशो य था बडी कठिनता से निर्मल किया जाता था। क्यों कि वे मुजुजड़ थे- इसलिये गुरु महाराज द्वारा सिग्वलाये जाने पर भी उन के वाक्य को सम्यक् रीति से समझ सकने में असमर्थ थे । तथा (चरिमाण - चरमाणाम् ) अन्तिम - तीर्थकर श्री महावीर के शिष्यों का साध्वाचार ( दुरणुपालभ-दुरनुपालकः) दुरनुपाल्य है । क्यों कि इनके शिष्य गुरु के वाक्य को कथचित् जानते हुए सुभधी शिक्षा श्रडुषु ४२नाश हो पाना अरो आज्ञ छे तेण धम्मे दुहा कडे तेन धर्मों द्विधा कृतः भार येऊ श्रार्य भानवा छता पर धर्म द्विविधपथी उस है ॥२६॥ मेन अर्थने स्पष्ट ४२ छ – “पुरिमाण" धत्याहि । मन्वयार्थ'---पुरिमाण-पौरस्त्याना प्रथम तीर्थ पुरना शिष्यानो कप्पो - कल्प. साध्वाया दुव्विसोज्झो - दुर्विशोध्य दुर्विशोध्य तो भूम બનાવવામા આવતા હતા કેમ કે, તે ઋજુ જડ હતા આ તરફથી સીખવાડવા છતા પણ્ એમના વાકયને સમ્યકરીતિથી तेथे। असमर्थ हुता तथा चरिमाण - चरमाणम् अतिभ तीर्थ २ મહાવીરના शिष्यांना माध्यायार दुरणुपालओ - दुरनुपालक: हुस्नुपाट्य छ भ ोभना शिष्य ગુરૂના વાકયને જો કે, જાણુતા હૈાવા છતા પણ વજ્રજ હાવાના કારણે સાધ્વાચારને उठीनताथी निर्माण કારણે ગુરૂ મહારાજ સમજી શકવામાં *
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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