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________________ - - उत्तराम्ययनरत फर्मविपाकजनित क्लेश सयम् भात्मनेर मत्यनुभपनि । यत कर्मकारमेन अनुयातिअनुगच्छति ॥ २३ ॥ इत्यमशरणभावनामुक्त्या सम्पत्येकत्वमारनामाह चिंच्चा दुपयं च चउप्पय च, खेतं गेह धर्ण-धन्न च सव्वं । सकम्म विइओ अवेसो पेयाइ, 'पैर भैव सुदेर पौवगवा ॥२४॥ छाया-त्यक्त्वा द्विपद च चतुष्पद च, क्षेत्र गेह धनधान्य च सर्वम् । स्वरुम द्वितीयोऽशः प्रयाति, पर भर सुन्दर पापक वा ॥ २४ ॥ टीका-'चिच्चा' इत्यादि द्विपद-भार्यादिक च चतुप्पद हस्त्यश्चादिक, च क्षेत्रम् = इक्षु क्षेत्रादिक, क्यों कि (कम्म-कर्म) कर्म (क रमेव अणुजाइ-कारमेवानुगच्छति) कर्ता के साथ ही जाता है, ऐसा नियम है। भावार्थ-जीवके शुभाशुभ भावों द्वारा उपार्जित कर्म जयतक जीव ससार में रहता है तबतक वही उनके फलका भोक्ता होता है । उसे भोगने वाला उस जीवके अतिरिक्त न वधुजन होते हैं। न माता होती है और न पिता होता है, यह एक अटल सिद्धान्त है । कर्मससारी जीवों के साथ २ ही जाता है । वह जैसा किया जाता है वैसा ही उदयकाल में उसका फल भोगना पडता है । इस प्रकार के मुनिराजका यह उपदेश अशरण भावनाका सूचक है । कहा भी है "शुभ अशुभ करमफल जेते, भोगे जिय एकहि तेते । सुत दारा होय न सीरी सब स्वारथके हैं वे भीरी ॥ ॥ २३ ॥ शन लागव छ भ, कम्म-कर्म भ करिमेव अणुजाइ-कतारमेवानुगच्छति કર્તાની સાથે જ જાય છે એ નિયમ છે ભાવાર્થ-જીવન શુભાશુભ ભાવે દ્વારા ઉપાજીત કર્મ જ્યાં સુધી જીવ સંસારમાં રહે છે ત્યા સુધી તે તેને ભેગવનાર બને છે તેને ભેળવવામાં તેના બધુજન વગેરે કાઈ સહાયક બની શકતા નથી ન માતા હોય છે, ન પિતા હોય છે, આ એક અટલ સિદ્ધાત છે ક સ સારી જીની સાથે જ જાય છે તે જેવું કર્મ કરે છે તેવુજ તેણે કર્મના ઉદય કાળમાં ભોગવવું પડે છે આ પ્રમાણે મુનિરાજને આ ઉપદેશ અશરણ ભાવનાનું સૂચક છે કહ્યું પણ છે "शुभ अशुभ करम फल जे ते, भोगे जीय एक हि ते ते । सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं वे भीरी ॥२३॥"
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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