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________________ ६२७ पीयूषयषिणो-टीका सू ५५ आचार्यादिप्रत्यनीय साधु वर्णनम् परियाग पाउणति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय-अप्पडिकंता कालमासे काल किच्चा उकोसेणं लतए कप्पे देवकिबिसिएसु देवकिदिबसियत्ताए उववत्तारो भवति, तहि तेसिं गई, परियाय पाउणति, पाउणित्ता' नहनि वर्षानि श्रामण्यपर्याय पालयन्ति, पालयित्वा 'तस्स ठाणस्स' तस्य स्थानस्य-तत्य प्रत्यनीकतादिनजातस्य पापस्थानस्य, 'अणालोइय-अप्पडिक्ता' 'अनालोचिताऽप्रतिक्रान्ता =गुस्समीप आलोचनाया प्रतिक्रमणस्य चाकरणेन दोपाटनिवृत्ता सत कालमासे काल फिचा', कालमासे काल कृत्या 'उकोसेण रंतए कप्पे देवकिबिसिएसु' उकण लातके पे=लातकनामके पठे देवलोक देवफिनिषिकेषु 'देवफिनिसियत्ताए उववत्तारो भवति' देवकिचिपिकतया उपत्तारो पाप का उपार्जन करते हुए (विहरित्ता बहुइ वासाई) इस भूमडल पर विचरण करते रहते हैं, और इतस्तत उसका प्रचार करते २ ही अनेक वर्षों तक उस साधुपर्याय को पालते हैं, वे (तस्स ठाणम्स अगालोइय-अप्पडिकता) उन पापस्थानों का आलोचना नहीं कर के, उन पापस्थानों का प्रतिक्रमण नहीं करके (फाल्मासे काल फिचा) काल अपसर में काल कर (उकोसेणं) उत्कृष्ट (लतए कप्पे देवकिबिसिएस देवकिदिबसियत्ताए उववचारो भवति) लान्तक नामक उठवे देवलोक म किन्विषिक देवों में फिल्विपिक जाति के देव होते हैं । इनको जो देवपर्याय मिलता हे वह विशिष्ट श्रामण्यज य है, अर्थात् वालतप के प्रभाव से प्राप्त होती है, परतु वदा फिल्चिपिक देवों में जो जन्म होता है यह तो आचार्याटिक की प्रत्यनीकता के फल से होता है । जिस प्रकार लोक में चाडाल आदि हुआ करते हैं उसी (विहरित्ता यहइ वासाइ) मा भूभ 31 6५२ विय२१ ४२ता २९ छ, भने આમ-તેમ તેને પ્રચાર કરતા કરતા જ અનેક વસો સુધી તે સાધુપર્યા यनु पासन रे , तया (तस्स ठाणरस अणालोइय-अप्पडिक्ता) ते पापस्थानानी याबायना न ४२ता, ते पाय-याननु प्रतिभ न ४२ता (कालमासे कार किन्चा) से मवमरे से उरीने (उस्कोसेण) Gट (लतए कप्पे देवकिपिसिएसु देवकिन्चिमियत्ताए उपवत्तारो भाति) सान्त४ नामना छ। देव લેમા કિબિષિ દેવોમા કિબિપિ. જાતિના દેવ થાય છે તેમને જે દેવ પર્યાય મળે છે, તે વિશિષ્ટ શમણું ધર્મ પાળવાથી જ મળે છે, અર્થાત બાલતપના પ્રભાવથી પ્રાપ્ત થાય છે, પરંતુ ત્યા જે કિબિષિક દેવોમાં જન્મ થાય છે એ તે આચાર્ય આદિકની પ્રત્યની તાના ફળથી થાય છે
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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