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________________ - ५५२ तुडियाणि वा अंगयाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा महदं वा चूलामणिवा पिणद्धित्तए,णण्णत्थ एगेणं तबिएणं पविचारणं । तेसि ण परिवायगाण णो कप्पइ गथिमवेढिमपरिमसघालो। चउव्विहे मल्ले धारित्तए, णण्णस्थ एगेण कण्णपूरेणं । तेसिं ण त्रुटिकानि वा, अगदानि केयूरान् वा, कुण्डानि या, 'मुकुट वा, चूडामणि वा पिनदुम्, हारादीनि तेषा परिव्राजकाना न फल्पते परिधातुमियर्थः। णण्णस्य एगेण तविएण' पवित्तएण' नाऽन्यत्रैकस्मात्ताम्रमयात्पवित्रकात्-ताम्रमयमालायक पवित्रकनामक तु तेषा : परिधर्तुं कल्पत इति भाव । 'तेसिं णा परिवायगाण, णो कप्पर गथिम-वेटिमपूरिम-सघाइमे चउबिहे मल्ले धारित्तए' तेपा खलु परिव्राजकाना नो कल्पन्ते प्रन्धिमवेष्टिम--पूरिम-सदातिमानि चतुर्विधानि मान्यानि धारयितुम्-प्रथेन-मन्थनेन निवृत्त-निर्मित मालारूप प्रन्थिमम् ; वेष्टेन वेष्टनेन निवृत्त वेष्टिमम्, , परिम-पूरणेन निवृत्तम्, सघातन निर्वृत्त सहातिमम् , एतानि चतुर्विधानि माल्यानि धारयितु न कल्पन्ते इत्यर्थ , 'णण्यस्थ एगेण कण्णपूरेण नान्यत्रैकस्मात्कर्णपूरकात्-एक पुष्पमय कर्णपूर तेषा न निषिद्धमिति भाव । रण विशेष है), प्रालय, तीन लरका हार, कटिसूत्र, दशमुदिकाएँ, कटक, त्रुटिक-बाजूबध अगद, केयूर, कुडल, मुकुट, चूडामणि, इनका पहिरना भी इन साधुओं को कल्पता नही, है । एक तावे की अगूठी ही इन्हे हाथ की अगुली में धारण करना कल्पता है। (तेसि ण परिवायगाण णो कप्पइ गथिम-वेढिम-पूरिम-सघाइमे चउबिहे मल्ल धारित्तए, णण्णत्थ एगेण कण्णपूरेण ) इन परिवाजकों को गूथ कर बनाई गई, वेष्टित ' कर बनाई गई, एवं परस्पर दो पूलों को सयुक्त करके बनाई गई, ऐसी चार प्रकार का मालाओं का पहिरना भी कल्पता नहीं है। एक पुष्पों का रचित कर्णफूल ही कान में डा२, टिसूत्र, शभुद्रिाया (वाट1), ४८४, त्रुटि:--मासूमयम ५२, " उस, भुट, यूरभाष, ५३९ प मा साधुयाने ४८५तु 'नथी. તાબાની અગૂઠી જ તેણે હાથની આંગળીમાં ધારણ કરવી કછે કિં ન परिवायगाण णो कप्पइ-थिम-वेढिम-पूरिम-सघाइमे चउबिहे मस्ले धारितए । पाणथं एगेण कण्णपूरेण) मा परिवार ने थान मानावेसी, वेष्टित ४शने मना । તેથી રસ ચા ઉપર પૂરીને બનાવેલી તેમજ પરસ્પર બે પળને જોડીને બના “ વેલી એવી ચાર પ્રકારની માલાઓ પહેરવી કરતી નથી સિં પુનું એક rohtar भने ४६नीय छ (तेसिं ण परिवायगाण णो कप्पा अनलुएणमा
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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