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________________ ४५८ औपपातिकत्र वेरमणे आदिण्णादाणवेरमणे मेहुणवेरमणे परिग्गहवेरमणे जाव मिच्छादसण सलविवेगे । सव्व अस्थिभाव अत्थित्ति वयइ, विपयाभिरुचि । ' अत्थि मायामोसे ' अस्ति मायामृषा - मायया सह मृपा-मायामृषा = सकपटमिथ्याभाषणम्, 'मिच्छादसणसले' मिन्यान्यम् - मिध्यादीनाम्यमिव, प्रतिक्षण विविधन्यथाविधाय त्यात 'अस्थि पाणाडनायवेरमणे मुसावायवेरमणे अदिष्णादाणवेरमणे मेहुणरमणे परिग्गहवेरमणे ' अस्ति प्राणातिपातविरमणम्, मृपावादविरमणम्, अदत्तादानविरमणम्, मैथुनविरमणम्, परिग्रहनिरमणम्। केषाश्चि मते प्राणातिपातादिविरमणस्याशस्यव प्रतिपाति तन्निरासार्थं तसत्ताऽभिधानम् । 'जाव मिच्छादसण सहनिवेगे' या मिथ्यादर्शनाच्यनिवेक - मिथ्यादर्शनाच्यस्य निवेक = पृथग्भाव, तस्मान्निवृत्तिरित्यर्थ, सोऽप्यस्ति ।' सव्व अस्थिभागं अथित्ति वयइ ' सर्व मस्तिभावमस्त।ति बढति-सर्वै=मक्रम् अस्तिभाव-सत्तारूपक्रियासहितो भाव = वस्तुसत्वम् हे । तथा कुदेव कुगुरु कुधर्म मे श्रद्धा रखना मिथ्यादर्शन है । अन्य की तरह प्रतिक्षण अत्यंत दुसाया होने के कारण यह मिथ्यादर्शन गन्य कहलाता है । ( अस्थि पाणाइ = वेरमणे परिग्गहवेरमणे जाव मिच्छादसणसहविवेगे) जो लोग हिंसादिक पाच पापों से विरक्त होने में अगक्यता प्रतिपादित करते है उनके लिये प्रभु कहते है कि ऐसी बात नहा है, प्राणातिपात से जीव विरक्त होता है, मृषावाद से जीव विरक्त होता है, एव परिग्रह से जान निरक्त होता है, यावत् मिथ्यादर्शनगन्य से भी जीन रिक्त होता है । ( सव्त्र अस्थिभाव अस्थित्ति वयइ सव्व णत्थिभाव णत्थित्ति वयइ ) " अस्ति ” यह् पद सब को “अस्ति” इस रूपसे कहता है और " नास्ति " यह पद समस्त भाव को 'मायामृपा' छे, मने मुहेव, मुगुरु, सुधर्भभा श्रद्धा राजवी ते मिथ्यादर्शन छे, ते शयनी भाइ प्रतिक्षणु टु महायी होवाथी 'मिथ्यादर्शनशल्य' हेवाय छे દુ (अत्थि पाणाइव।यवेरमणे, मुसावायवेरमणे, अदिण्णादाणवेरमणे, मेहुणवेरमणे, परि ग्गहवेरमणे, जाव मिच्छा दसणसल्लविवेगे) ने सोङ हिसा साहिए पाय पायोथी વિરક્ત હોવામા અશયતા પ્રતિપાદિત કરે છે તેમના માટે પ્રભુ કહે છે કે એવી વાત ઈ છે નહિ પ્રાણાતિપાતથી જીવ વિરક્ત થાય છે, મૃષાવાદથી જીવ વિરક્ત થાય છે, અદ્યત્તાદાનથી જીવ વિરક્ત થાય છે, મૈથુનથી જીવ વિરક્ત થાય છે તેમજ પરિગ્રહથી જીવ વિરક્ત થાય છે, યાવત્ મિથ્યાદર્શનશલ્યથી यश व विरक्त थाय छे (सन अभिमान अत्थित्ति वयइ सव्व णत्थिभाव णत्थित्ति वयइ) “अस्ति” थे यह मधाने अस्ति (3) मे ३ये उसे छे, भने “नास्ति” थे यह
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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