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________________ ४४५ __पोयूषयषिणो-टीका सू ५६ भगरतो धर्मदेशना ग्घोस-ददुभि-स्सरे उरे वित्थडाए कंठे वटियाए सिरे समाडपणाए अगरलाए अमम्मणाए सव्व-कखर-सणिवाइयाए धोपवत्-क्रौञ्च =पक्षिविशेपम्तस्य मन्जुलफूजनात्, दुदुभिस्वरपच्च स्वरो यस्य स तथा-गारदजलघर वनिवत् नौचालकृजनपद् दुन्दुमिस्वरख मधुरगम्भारदूरगामिपनियुक्त इत्यर्थ । 'उरे वित्थडाए' उरमि विस्तृतया-वक्ष स्थलस्य विस्तार्णवात् तत्र विस्तारमुपगतया, 'कठे वट्टयाए' कण्ठे वृत्ततया, स्वार्थे तल् , वृत्तया इत्यर्थ , रुण्ठस्य वर्तुलवात् तत्र वृत्तरपेण स्थितया, 'सिरे समादण्णाए' शिरसि समाकर्णिया-शिरसि मूर्ध्नि समाकीर्णयाच्यामया, तत 'अगरलाए अगरल्या व्यक्तया मून परावृत्य वक्रमागय तान्यातितत्तत्स्थान प्राप्य वर्णसमुदायस्वरूप प्राप्तया इति भाव , 'अमम्मणाए' अमन्मनया-वर्णपदवैकन्यरहितया, 'सन्चस्वरसन्निवाइयाए' सवाक्षरसन्निपातिक्या-सर्वे अक्षरसन्निपाता =वर्ण योगा सन्ति यस्या सा तथा-सकरवाडमयस्वरूपा तया, भगवत सर्वनतया सवार्थवाचकगदप्रयोगकरणादिति भाव , 'पुण्णरत्ताए' पूर्णरक्तया-पूणा स्वरकलादित्यणिय-महुर-गभीर-कोच-णिग्योस-दुभि-रसरे) भगवान् का ध्वनि शरत्कालान नवीन मेघ की गर्जना जैसी मधुर एव गभीर था। तथा क्रौचपक्षी के मजुल निघोंप की तरह मीठी एव दुदुमि के स्वर का तरह वहुत दूर तक जानेवाली थी 1 (उरे वित्थडाए) वक्षस्थल के विस्तीर्ण होने से वहाँ पर विस्तार को प्राम हुई ऐसी (फठे वट्टयाए) कठ के वर्तुल होने के कारण वहाँ पर गोलरूप से स्थित, (सिरे समादण्णाए) मस्तक में व्याप्त, (अगरलाए) मस्तक से वक्ररूप मे आकर उन २ तावादिस्स्थानों में प्राप्त होरर वर्णसमुदायस्वरूप को प्राप्त, अत एव स्पष्ट उच्चारणवाली, (अमम्मणाए) मण-मण शब्द से रहित अर्थात् वर्ण ण्व पढ की विफलता से रहित, (सवरखरसण्णिवाइयाए) साल्वाड्मयस्वरूप-समस्त अक्षरों के म्योगवाली-सकल णिग्घोस-दुदुभि-रसरे) मापानना पनि, २२६ जना नवीन मेघना ना જેમ મધુર તેમજ ગભીર હોય તેવો હતે તથા કૌ ચ પક્ષીના મજુલ નિર્દે પના જેમ મીઠે તેમજ દુભિને સ્વરના જેમ બહુ દૂર સુધી જાય તે डत(उरे पित्थडाए) पक्षस विती (पाणु) पाथी त्या विनतारने प्रास येसी, (कटे पट्टयाए) ४४ गोहपाना हारको त्या गोण ३५था स्थित, (सिरे समाइण्णाए) भन्तमा व्यास, (अगरलाए) भन्थी १४३५मा मापी ते તાલ આદિક સ્થાન પ્રાપ્ત કરી વર્ણ સમુદાયસ્વરૂપને પ્રાપ્ત હોવાથી સ્પષ્ટ ઉચા२९ पाणी, (अमम्मणाए) भए-भ ण् २डित अर्थात् पर्ण तभा पहना (१३सताबी ड़ित (सब-क्सर-सण्णिवाइयाए) सस पाइभय२५३५ सभस्त मक्ष
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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