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________________ पीयूषवपिणी-टीका र ४८ कृणिकस्य इस्तिरत्नारोहरणम् ४०१ . रिख-तारागणाण मज्झे ससिव पियदसणे णरवई जेणेव वाहिरिया उवट्टाणसाला जेणेव आभिसेके हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अजण-गिरिकूड-सपिर्णभं गयवइं णखई दुरूढे ॥ सू० ४८॥ ससिच' ग्रहगग दीप्यमान-कक्ष तारागणाना म ये अगोप-दीप्यमानानाम् रक्षाणा-नक्षत्राणा तारागणाना च म ये चन्द्र इव, 'पियदसणे' प्रियदर्शन ‘णरवई' नरपति ‘जेणेव वाहिरिया उत्राणसाला' यत्रैव बाह्योपस्थानशाला, 'जेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे' यौपाऽभिपेक्य=प हस्तिरत्नम् , 'तेणेव उवागच्छइ' तत्रैवोपागच्छति, ‘उवागच्छित्ता' उपागय 'अजणगिरि-कूड-सण्णिभ गयवइ णरवई दुरूदे' अन्ननगिरिकृटसन्निम गजपति नरपतिर्दूरूढ - अञ्जनपर्वतशिग्वराऽऽकार गजेन्द्र नरेन्द्रो दुरूढ =आरूढवान् । सू० ४८ ॥ नक्षत्र एव तारागणों के मध्य मे सुशोभित चद्रमा के समान (पियदसणे) देखने में बहुत ही सुदर मालूम होते थे । मतलब इसका यह है कि यहाँ पर गजा को चद्रमा का और उनके स्नान घर को शुभ मेघों की, तथा गणनायक आदि को नक्षत्र और ताराओं की उपमा दी गई है । इस प्रकार से वे राजा (जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ) जहा पर बाहिर की ओर उपस्थानशाला थी और जहा वह आभिपेक्य हस्तिरत्न खडा हुआ था वहा पहुँचे । (उवागच्छित्ता अजणगिरि-कूड-सण्णिभ गयवइ णरवई दुरूढे ) पहुँचते ही वे अजनगिरि के शिग्वर के समान उस हाथी पर आरूढ हो गये ।। सू० ४८ ॥ દીપ્યમાન એવા નક્ષત્ર તેમજ તારાગણના મધ્યમા સુશોભિત ચદ્રમા જેવા (पियदसणे) नेवामा ४ सुह२ साता तो भतराम से , यही રાજાને ચ દ્રમાની અને તેમના સ્નાનઘરને શુભ્રમેની તથા ગણનાયક આદિને नक्षत्र भने तारामानी 64भा मापी छ । प्रारे ते रात (जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छद) त्या मारनी બાજુએ ઉપસ્થાનશાલા હતી અને જ્યા તે આભિષેકય હાથીરત્ન ઉભે २ह्यो डतो त्या पहाच्या (आगच्छित्ता अजणगिरि-कूड-सनिभ गयरइ णरवई दुरुदे) पहायता अनगिरिता शिपना २ ते साथी ५२ २५॥३८ थ७ या (सू० ४८)
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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