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________________ १२८ . औपपातिकतो जमजरामरणोच्छेदकत्वेन चक्रतुल्यवात् , वर च तचातुरन्तचक्र परचातुरतचक्रम् , वरपदेन राजचकाऽपेक्षयाऽस्य श्रेष्ठव व्यग्यते लोकदयसाधकवात् , धर्म एव वरचातुरन्तचक्र-धर्मवरचातुरन्तचक, तादृशस्य धर्मातिरिक्तस्याऽसम्मवात्, अतएव सौगतादिधर्माऽऽभासनिरास, तेषा तात्विकार्थप्रतिपादकवाभावेन श्रेष्ठवाऽभावात्, धर्मवरचातुरन्तचक्रेण वर्तितु गोल येषामिति धर्मवरचातुरन्तचकार्तिनस्तेभ्य । चक्रवर्तिपदेन पट्खण्डाधिपतिसादृश्य व्यज्यते, तथा हि चवार =उत्तरदिशि हिमवान् शेपदिक्षु चोपाधिभेदेन समुद्रा अन्ता-सीमानरतेपु स्वामित्वेन भवाचातुरन्ता , चक्रेण-रल है। यह चातुरन्त ही एक चक्र है, क्यों कि चक्र जिस प्रकार पर का उच्छेदक होता है उसी प्रकार यह "चातुरन्तचक्र" भी जीवों के जम, जरा एव मरण का उच्छेदक है। इसलिये इसमे चक्र की उपमा सार्थक होती है। 'वर' शब्द का अर्थ उत्कृष्ट है, यह चातुरन्तचक मे उत्कृष्टता घोतित करता है। राजचक्र की अपेक्षा यह चक्र उत्कृष्ट है। क्या कि यह लोकद्वय में हित का साधक होता है। धर्म ही एक उत्कृष्ट चातुरन्त चक है, अन्य नहीं ! इस कथन से अन्य सौगतादिक समत धर्म मे धर्माभासता होने से तात्विक अर्थ को प्रतिपादन करने का अभाव कथित हुआ है , अत उनमे श्रेष्ठता नहीं है। इस धर्मवरचातुरन्तचक्र के अनुसार जिनका वर्तन करने का स्वभाव है वे धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती कहे गये है । " चक्रवर्ती " पद से पट्खड के अधिपति का सादृश्य अभिव्यक्त होता है । "चत्वारःअन्ताः - चतुरन्ता" यहा अत शब्द का अर्थ सीमा होता है। उत्तरदिशा में हिमवान् एव शेष तीन दिशाओं में उपाधि के भेद से तीन समुद्र ये चतुरन्त पद से गृहीत તેજ પ્રકારે આ ચાતુરન્તચક પણ જીના જન્મ, જરા તેમજ મરણને ઉછેદ કરે छ से भाटे मामायनी पभा साथ थाय छ 'वर' शहना अर्थ Bष्ट છે આ પદ ચાતુરન્તચક્રમાં ઉત્કૃષ્ટતા ઘોતિત કરે છે રાજચકની અપેક્ષાએ આ એક ઉત્કૃષ્ટ છે કેમકે આ બને લોકમા હિતનુ સાધક થાય છે ધર્મજ એક ઉત્કૃષ્ટ ચાતુરન્તચક છે, બીજુ નહિ ! આ કથનથી બીજા સૌગત આદિક સમત ધર્મમાં ધર્માભાસતા હોવાથી તાત્ત્વિક અર્થને પ્રતિપાદન કર વાનો અભાવ કહેવામાં આવ્યું છે, માટે તેમાં શ્રેષ્ઠતા નથી આ ધર્મવર ચાતુરન્તચક્ર અનુસાર જેનું વર્તન કરવાને સ્વભાવ છે તે ધર્મવરચાતુરન્ત ચવતી કહેવાય છે “ચકવાની ” પદથી પટ (છ) ખડના અધિપતિનું माश्य भलिव्यात थाय " चत्वार अन्ता चतुरन्ता " यही सन्न શને અર્થ સીમા થાય છે ઉત્તરદિશામાં હિમવાનું તેમજ શેષ (બાકીની)
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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