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________________ उत्तराध्ययनसरे । टीका-'अम्भाहयमि' इत्यादि। . " हे तात ! अभ्याहते-आभिमुख्येन पीडिते, तथा सर्वतः सर्वासु दिक्षु परिवारिते-परिवेष्टिते, तथा-अमोघाभिमान याभिः पतन्वीमिः शस्त्रपारातुल्यामि रभिहते, इति शेषः । अस्मिन् लोके वय गृहे रतिम्-मुख न लाभामहेन प्राप्नुमः। अय भावः-यथा पागुरावेष्टितो मृगस्तीक्ष्णरमोघवाणा येनाभ्याहतो रतिं न माप्नोति, तथैव गृहे वयमपि ।। २१ ॥ पुत्रयोरेतद् बचन निशम्य पितामाह मूलम्केण अभाहओ लोओ, केण वा परिवारिओ। . का वा अमोही वुत्ता, जाया । चिंतीवरो हुँमि ॥ २२॥ फिर कहते हैं-'अम्भाहयमि' इत्यादि। • अन्वयार्थ हे तात । (अन्भायमि-अभ्याहते) बिलकुल समक्षमें पीडित तथा (सव्वओ-सर्वत) सब ओरसे (परिवारिए-परिवारिते) परिवेष्टित एव (अमोहाहिं पडतीहि-अमोघाभिः पतन्तीभिः) अमोघ-सफल पातोंसे अभिहत (लोगेमिन-लोके) इम लोकमें हम लोग (गिहसि रइन लभे-गृहे रतिं न लभामहे) घरमे रह कर कभी भी आनन्द प्राप्त नही कर सकते है। ताप्तर्य-इसका इस प्रकार है-जिस प्रकार वागुरासे वेष्टित मृग तीक्ष्ण एव अमोघ वाणो द्वारा व्याधसे आहत होकर कहीं पर भी आनन्द नही पाता है, उसी प्रकार हमलोग भी इस मसारमें रहते हुए आपके घरमें आनन्द नहीं पा सकते है ॥२१॥ ५ ४ छ-" अब्भाहयमि"-या ! मन्वयार्थ:- तात । अभाहयमि-अभ्याहते Gulsh शतश य तवा पीडित भन्न सव्वओ-सर्वत सतरथी परिवारिए-परिवारित ३राये। मन. अमोहाहिं पडतीहिं-अमोघाभि पतन्तीभि समाध स पापोथी माता मेवा लोगम्मि-लोके २ मा 'सभा गिहसि रई न लभे-गृहे रतिं न लभामहे घरमा २२॥ छ। ५५ मान प्रात ४N शीतभ नथी मेनु તાત્પર્ય એ છે કે, જે રીતે વાપુરાથી મૃગબ ધથી ઘેરાયેલ મૃગ તીક્ષણ અને અમેઘ બાણેથી શિકારીથી હણાયા પછી કઈ પણ સ્થળે આનદ પામી શકતે પથી એ રીતે અમે પણ આ સ સારમાં રહેવા છતા આપના ઘરમાં આનદ મેળવી શકવાના નથી૨૧
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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