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________________ प्रियदर्शिनी टी अ० १४ नन्ददत्त-नन्दप्रियादिपइजीयचरितम् प्राप्नुवन्तः, तथा-परिरक्ष्ममाणाः भृत्यादिभिः साधुप्वहितकारित्वबुद्धिमुत्पाध वदर्शनाद् पार्यमाणाः, धर्म-सम्यग्दर्शनादिकम् अजानाना वय मोहात्=अज्ञानाद, पाप कर्म-साधूनामदर्शनादिरूप सावद्यकर्म, अफार्मकृतपन्तः। भूयोऽपि-पुनरपि वत् पाप कर्म न समाचरामान समाचारिप्याम-इत्यर्थः। द्वयोः सत्त्वे वयमिति बहुवचन 'अस्मदो द्वयोथे'ति व्याकरणसूत्रानुसारात् ॥ २० ॥ पुनरप्याह अभाहयामि लोगम्मि, सबओ परिवारिए । अमोहाहि पंडतीहि, गिहसि न रइ लेंभे ॥ २१॥ छाया-अभ्याहते लोके, सर्वतः परिवारिते। अमोघाभिः पतन्तीभिः गृहे न रतिं लभामहे ।। २१॥ (ओझज्झमाणा-अवध्यमानाः) घरसे नहीं निकलने दिये गये तथा (परिरक्खियता-परिरक्ष्यमाणाः) साधुओंके विषय मे अहितकारित्व चुद्धिको उत्पन्न कराके उनके दर्शन करनेसे भी रोके गये (वय-वयम्) हम लोगोंने (धम्ममयाणमाणा-धर्मेमजानानाः) धर्मको नही जानते हुए (मोहा-मोहात्) अज्ञानसे (पाव कम्म अकासि-पापकर्म अकार्म) मुनियोंके दर्शन आदि नहीं करने रूप पापकर्म किया (त-तत्) वह पापकर्म अव (भुज्जोचि नेव समायरामो-भूयोऽपि नैव समाचरामः) हमलोग फिरसे नहीं करेंगे। अर्थात्-जिस प्रकार हमलोगोंने आपकी बातोंमें आकर मुनियोंके दर्शन सेवा आदिसे अपनेको वचित रक्खा वैसा काम अब हमलोगोंसे नहीं हो सकेगा ॥२०॥ माणा-अवरुध्यमाना घरमाथी मार न नीवानु जडान भन्न परिरक्खियताપરિક્ષમાળા સાધુઓના વિષયમાં અહિત કારિત્વ બુદ્ધિને ઉત્પન્ન કરીને એમના ६श नयी ५५ ४ामा मावस वय-वयम् सभे मन मामास यम्ममयाण माणा-धर्ममजानाना धर्मर न वाथी तभ मोहा-मोहोत् मज्ञानथी पावकम्म अकासि-पापकर्म अकार्घ्य भुनियाना शन माह न ४२वानु पाप ४ त-ततू ते पा५७ वे मुज्जो वि नेव समायरामो-भूयोऽपि नैव समा વાય અમે ફરીથી કરવાના નથી અર્થાત અમે આપની વાતમાં આવી જઈને મુનિઓના દર્શન, સેવા આદિથી પિતાની જાતને વચિત રાખી છે એવુ કામ હવે અમારાથી બની શકવાનું નથી કે ૨૦ उ० १०६
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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