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________________ १५८ बचराष्पयन श्रित्याऽसत्कार्यपादिनी भरताऽभिधीयते, अत खलु क्रियमाण भवतीति, कत्र पय सत्कार्यवादिनो ब्रूमः-निष्प्रमाणमेतद्वादीयाचनम् । अकृतम् ( अविधमान) घटादिकार्य न क्रियते, असत्वात् , आकाशकुसुमत् । यदि अकृतम् (अविधमा नम् ) अपि क्रियते, तर्हि शशविषाणमपि क्रियताम् , अकृतलाविशेषाद (अविद्यमानत्वाविशेषात् ) । अपि च-ये नित्यकरणादयो दोपाः सत्कार्यवादे पदत्तास्ते खल्वसहकार्यवादेऽपि तर सन्ति । विद्यमाने वस्तुनि करणक्रियाया अङ्गीकारे पुनः पुनरनवरत करणक्रियाया अतिमसङ्गाद , क्रियाया अपरिसमाप्तिः क्रियाया वैफल्य नहीं हैं । आपने जो असत्कार्यवाद को लेकर कुतर्क का आश्रय करते हुए ऐसा कहा है कि-'कृतं न क्रियते कृतत्वात् , कृतघटवत् ' अर्थात्कृत होनेसे कृत किया नहीं जाता है जैसे कृत घट, अकृत खलु क्रियमाण भवति' अर्थात् अकृत ही क्रियमाण होता है सो आपका यह कथन कथचित् सत्कार्यवादी हमलोगों के चित्त मे उतरता नहीं है भला आप को यह विचारना चाहिये जो सर्वथा असत् होता है-द्रव्य दृष्टि से भी जिसका सत्ता कायम नही है ऐसा असत् पदार्थ कभी भी निष्पन्न नहीं हो सकता है । यदि इस प्रकार का भी पदार्थ निष्पन्न होने लगे तो शश विषाण को भी उत्पन्न होना चाहिये । दूसरे द्रव्य की अपेक्षा सत् का कार्य मानने पर जो आपने नित्यकरण होने की प्रसक्तिरूप दोष दिये है सो ये सभी दोप आपके असत्कार्यवाद में भी आते हैं, आपने जा यह कहा है कि विद्यमान वस्तु मे करनेरूप क्रिया को अगीकार करन पर पुन पुनः अनवरत उस करनेरूप क्रिया का अतिप्रसग प्राप्त होता ह स्वीरी मुतना माश्रय वन मेषु छ, कृत न क्रियते कृतत्वात कृत घटवत् अर्थात् त पाथी त ४२ख भनात नथी रवीशत तय अकृत खलु क्रियमाण भवति अर्थात् न्यारे भइतर ठियमा डाय छ २५ આપનું આ કથન કથ ચિત સત્કાર્યવાદી અમારા લોકોના દિલમા ઉતરતું નથી, આપે એ વિચારવું જોઈએ કે, જે સર્વથા અસત હોય છે દ્રવ્યદષ્ટિથી પણ સત્તા કાયમ નથી એવા અસત પદાર્થ કદી તૈયાર થઈ શકતા નથી જે કદી આ પ્રકારના પણ પદાર્થ પુરા થયેલા માનવામાં આવે તે ખરવિષાણ (ગધેડાને શીગડા પણ ઉત્પન્ન થવા જોઈએ દ્રવ્યની અપેક્ષા અને કાર્ય માનવામાં જે આપે નિત્યકરણ હોવાને પ્રશસ્તીરૂપ દેષ આપે છે, તે સઘળા દોષ આપના અસતકાર્ય વાદમાં પણ આવે છે આપે છે એમ કહ્યું કે, વિદ્યમાન વસ્તુમાં કરવારૂપ કયિાને અગિકાર કરવાથી ફરી ફરી અનવરત એ છે - ना
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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