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________________ ४७१ - टीका-'अचेलगस्स' इत्यादि। अचेलकस्य सर्वथा स्वरहितस्य जिनकल्पिकस्य, तथा शास्त्रमर्यादातिरितनवरहितस्य स्थविरकल्पिकस्य चेत्यर्थः। आगमे हि अल्पमूल्यकालपरत्रस्य मर्या दितस्यैन धारणात् स्थविरकल्पिकोऽप्यचैलक एवास्तीति प्रागचैलकपरीपहप्रकरणे निर्णीतम् । तथा उभयविधस्य मुनेस्तृगस्पर्शपरीपहेन्यान्यपि कारणानि सन्तीति प्रदर्शयितुमाह-लहस्स '-इत्यादि । रूक्षस्प-तेलाम्यगादिपर्जनाद् अस्निग्धशरीरस्येत्यर्थः, सयतस्य-निरतिचारसयमाऽऽराधनतत्परस्प, तपस्विन तपश्च रणशीलस्य, अनशनादितप.समाचरणात् कृशशरीरस्येत्यर्थः मुनेः, तृणेषु-दर्भादिपु तदुपस्शियानस्य उपलक्षणत्वादासीनस्य चेत्यर्थः गात्रविराधना-शरीरे तृणस्पर्शजन्या पीडा भवति ॥ ३४ ॥ अघ सूत्रकार सतरहवा तृणस्पर्शपरीपहजय का विवेचन करते हैं'अचेलगस्स' इत्यादि। अन्वयार्थ-(अचेलगस्स-अचेलकस्य ) सर्वथा वस्त्ररहित जिनकल्पिक, तथा शास्त्र की मर्यादा के अतिरिक्त वस्त्र नहीं रखने वाले स्थविरकल्पिक मुनि के (लूहस्स-रुक्षस्य)कि जिन का तेल आदि की मालिश करना वर्जित होने से शरीर बिलकुल रूक्ष हो रहा है, एव (सजयस्स-सयतस्य) जो निरतिचार सयमकी आराधना करने में तत्पर रहते हैं, तथा (तयस्सिणो-तपस्विन) अनशन आदि तपों के करनेवाले होने से कृश शरीर पाले है, और जो (तणेसु सयमाणस्स-तृणेषु शयानस्य) दर्भादिक तणों के ऊपर सोते है उपलक्षण से उपर बैठते हैं उनके (गायविराहणा-गात्रविराधना) शरीर में तृणस्पर्शजन्य पीड़ा होती है। હવે સૂત્રકાર સત્તરમા તૃણપપરીષહ જીતવાનું વર્ણન કરે છે 'अचेलगस्स'-त्यादि अन्वयार्थ-अचेलगत्स-अचेलकस्य सवथा सहित , तथा શાસ્ત્રની મર્યાદાથી અતિરિક્ત વસ્ત્ર ન રાખવાવાળા સ્થવિરકલ્પિ મુનિ રણ& જેને તેલ આદિની માલીશ કરવાનું વજીત હેવાથી શરીર બીસ્કુલ ३६ पनी गयेद छ सजयस्स-सयतस्य भने २ निरतियार सयभनी अराधना ४२पामा २ २ छ तवस्सिणो-तपस्विन तथा अनशन माहित५ ४२नार पाथी दृश शरीरवाणा छ भने तणेसु सयमाणस्स-तृणेषु शयानस्य galles तृयनी ५२ सुवेछ, साथी ७५२ से छ, तमना गायविहारणा-गात्र विराधना शरीरमा तृस्पान्य पी। थाय छ
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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