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________________ प्रियदर्शिनी टोका अ०२ गा १६ खोपरीपहजय' - ...-------३९१ सत्तौ च तद्वशीभूताना पुरुषाणा नरकनिगोदादिदुर्गविकसंसारपात , तस्माद स्त्रिय पुरुपाणां उन्धनमिति व्यपदेशः । अतः किं कर्तव्यमित्याकादक्षायामाह-'जस्स' इत्यादि। यस्य-अत्र सम्बन्धसामान्ये पष्ठी, येन मुनिनेत्यर्थः, एताः स्त्रियः परिज्ञाताः परि-सनया ज्ञाताः ज्ञ-परिज्ञयाऽस्मिन् भवे परभवे चानन्तदुःखकारणतया विज्ञाताः प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिवर्जिताः, तस्य मुनेः श्रामण्यं-चारित्रम् , अत्र श्राम'ण्येन सह परिपाल्यपरिपालकभानसम्मन्धे पष्टी। सुकृत-सुष्ठु आचरित भवति, सफल भवतीत्यर्थः ॥ १६॥ पुरुप. उनके वशीभूत हो जाता है । उनके वश मे हो जाने से उसका नरक निगोद आदि दुर्गतिरूप ससार मे पतन अवश्यभावी है। इस लिये ये स्त्रिया पुरुषों का वधन है । इसलिये ( जस्स-यस्य ) जिस मुनि द्वारा (ण्या परिणाया-एताः परिजाताः) ये सर्वथा ज्ञ-परिज्ञा से इस भव मे तथा परभव में अनत दुःखों के कारणरूप जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से परिवर्जित कर दी जाती हैं (तस्स सामण्ण सुकड-तस्य श्रामण्य सुकृतम् ) उस मुनि का साधुपना सफल है। भावार्थ-जिस प्रकार मृगादि पशुओं को पकड कर रखने के लिये वांगुरा (जाल) आदि बन्धन प्रसिद्ध है क्यों कि इन द्वारा परतन्त्र किये वे स्वतन्त्र विहार से रहित हो जाते हैं, और अनेक प्रकार की यातनाएँ सहन करते हैं इसी प्रकार पुरुषों का वधन ये स्त्रियां हैं। इनके वश में पड़ा हुआ प्राणी परतन्त्र होकर अपनी स्वन्तत्रता-चारित्र તેના વશ થવાથી તેનું નરક નિગોદ આદિ દુર્ગતિ રૂપ સ સારમા પર્તન अवश्य मावि छ माटे मिया ५३पानु मधन छ, २॥ भोट जस-यस्स २ भुनितारा एयापरिण्णाया-एता परिज्ञाता थे सपथा श-परिक्षाथी माल તથા પરભવમા અન ત દુખના કારણ રૂપ જણને પ્રત્યાખ્યાન પરિસથી परिव ४श हेवाभा मा छे 'तस्स 'सामण्ण सुकड-तस्य श्रामण्य सुकृतम् એવા મુનિનું સાધુ પશુ સફળ છે ભાવાર્થ-જે પ્રકાર મૃગ આદિપશુઓને પકડી રાખવા માટે જાળ આદિ અધન પ્રસિદ્ધ છે કેમ કે, તેના દ્વારા પરતત્ર કર્યાંથી તે સ્વતંત્ર વિહારથી રહિત બની જાય છે અને અનેક પ્રકારની આંતનાઓ સહન કરે છે આ રીતે પુરૂનું બ ધન સ્ત્રીઓ છે તેના વશમાં પડેલા પ્રાણી પરતંત્ર બનીને
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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