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________________ ३६८ उत्तरायवार ऽविशयित हिम समापतितम् तयाप्पकमात्र प्रापरणमसौ दधाति न तु द्वितीयक्त गृहाति, तस्मिन्नेर जीर्णशीर्ण प्रापरणे मोस्मासम्पन्नेन मनसाऽचेलपरीप सहमानः समाधिभावेन फाळधर्म प्राप्य देालोकगतः। एव तेन यथा-अवेलपरीपहा सोढस्तथैवान्यैरपि साधुभिः सर्मदाऽचेलपरीपहः सोढव्य एर ॥१३॥ अचेलकस्य शीतादिभिः स्पृष्टस्यारतिः स्यात , अतस्तत्परीपहनय पाहमूलम् -गामाणुगाम रीयंत, अणगारं अकिंचण । अरई अणुप्पवेसेज्जा, त तितिम्खे परीसंह ॥१४॥ छाया-प्रामानुग्राम रीयमाणम् , अनगारम् अकिञ्चनम् । ____ अरतिः अनुपविशेद , त तितिक्षेत परीपदम् ॥ १४॥ टीका-'गामाणुगाम' इत्यादि । ग्रामानुग्रामम्-ग्रामम् अनु, ग्रामात् पश्चात्, ग्रामानन्तरवर्ती यो ग्रामः स रहे। एक दिन की बात है कि शीतकाल में अत्यन्त हिम गिरा तो भी इन्हों ने द्वितीय प्रावरण धारण करने की स्वप्न में भी इच्छा नहा का किन्तु एक ही प्रावरण से उस हिम का सामना किया। जीण शाण उस प्रावरण में ही प्रोत्साहसपन्न चित्त से अचेलपरीपद को सहन करते हुए उन सोमदेव महात्माने समाधिभाव से कोलधर्म पाकर दव लोक को प्राप्त किया। __ इस कथा के कहने का केवल एक यही प्रयोजन है कि देखो सोमदेव मुनिराज ने परिले अचेलपरीषह नही सहा, पश्चात् प्रतियोधित होने पर उस परीषहको अधिक प्रोत्साह के साथ सहन किया। इस तार अन्य साधुओं को भी अचेलपरीपह सहन करना चाहिये॥ १३ ॥ દિવસની વાત છે કે, ઠડીના સમયે અત્યત હિમ પડયું તે પણ તેઓએ અં9િ પ્રાવરણ કરવાની સ્વપ્નમાં પણ ઈરછા ન કરી પરત એક જ પ્રાવરણમાજ ઉત્સાહ સપન્ન ચિત્તથી અચેલ પરીષહને સહન કરીને તે સોમદેવ મહાત્માએ સમાધા ભાવથી કાળધર્મ પામી દેવલોક ને પ્રાપ્ત કર્યો આ કથા કહેવાનું કેવળ એક જ પ્રોજન છે કે, જુઓ, સમદેવ મુનિએ પહેલા અચેલપરીષહ ન સો પાછળથી પ્રતિબોધ પામતા તેમણે એ પરીષહને અધિક ઉત્સાહથી સહન કર્યો અન્ય સાધુઓએ પણ એમની માફક અલપરીષહ સહન કરવું જોઈએ (૧૩)
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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