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________________ दर्शिनी टीका अ०२ गा १३ अचेलपरीपहजय ३२५ ठमा नूतनवस्त्रवान् भविष्यामि, इति भिक्षुन चिन्तयेत् , अय भाग:-जीर्णवस्त्र साधुर्वस्वाभावसभावनया स्वात्मनि विपाद न कुर्याद्, नापि च नूतनमस्त्रसभावनया हपं कुर्यादिति ।।१२।। उक्तार्थमेव दृढीकर्तुमाहलम्-एगंया अचेलए होई, सचेले योवि एगया। । एय धम्माहिय नच्चा, नाणी 'नो परिदेवए ॥१३॥ छाया-एकदा अवेलको भाति, सचेलथापि एकदा । । एतद् धर्महित ज्ञात्वा, ज्ञानी नो परिदेवयेत् ॥१३॥ | टीका-'एगया' इत्यादि। | एकदा कदाचित् , कल्पनीयजीणखण्डितमलिनाल्पवस्त्रस्य सद्भावे मुनिः, यभाव न करे। (अदुवा-अथवा) अथवा (सचेलए होस्ख-सचेलको विष्यामि) नवीन वस्त्रों से "उनकी अधिक स्थिति होने से" सचेलकत्र सहित हो जाऊँगा (इति) इस प्रकार (भिक्खू) साधु (न चिंतए न चिन्तयेत्) विचार न करे। इस का भाव केवल यही है कि साधु जिस समय जीर्ण वस्त्रों का रिधान करे उस समय मुनि “ये फटे पुराने वस्त्र कितने दिन तक लेंगे इनके फट जाने पर मैं निर्वस्त्र हो जाउँगा" इस प्रकार कभी अपनी आत्मा में विपाद न करे । "ये नवीन वस्त्र हैं अधिक दिन क चलते रहेंगे अतः मै सवस्त्र ही रहूँगा" इस प्रकार कभी हर्ज नाव को प्राप्त न हो । अथवा 'अव नूतन वस्त्रो की मुझे प्राप्ति होगी. इस बात की सभावना से भी साधु कभी भी हर्पित न होवे ॥ १२ ॥ सचेलए होस-सचेलको भविष्यामि नवीन पोथी " ते १५ प्रभामा पाथी" सय वसहित 5 श 21 प्रारनी ५ " भिक्खू" साधु नचिंतए-न चिंतयेत् पियार न रे આનો ભાવ કેવળ એ જ છે કે, સાધુ જે સમયે જીર્ણ વસ્ત્ર પરિધાન કરે એ સમયે આ ફોટા તૂટયા વસ્ત્રો ર્કેટલા દિવસ ચાલશે, આના ફાટી જવા પછી હું વસ્ત્ર વગરને બની જઈશ આ પ્રકારને વિષાદ કદી પણ પિતાના આત્મામા ન કરે આ નવા વસ્ત્ર છે, ઘણા સમય સુધી ચાલતા રહેશે, અને આથી હું અવસજ રહીશ આ પ્રકારને હર્ષભાવ પણ વદી ન લાવે અથવા હવે મને નવા વસ્ત્રની પ્રાપ્તિ થશે આ વાતની સ ભાવનાથી પણ સાધુ કદી पित न थाय (१२)
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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