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________________ ३०७ प्रियदर्शिनी टीका अ०२ गा ८ उष्णपरीपहजय चतुर्थयामे । सर्वेऽप्येते विजितशीतपरीपहाः काल कृत्वाऽनुत्तरविमानेषु एकभवावतारित्वेन समुत्पन्नाः । एवमन्यैरपि मुनिभिः शीतपरीपहः सोहन्यः ॥७॥ शीतकालानन्तर ग्रीष्मागमो भरतीत्यत शीतपरीपहानन्तरमुष्णपरीपह जय माहमूलम् उसिणपरियावेणं, परिदाहेण तजिए । घिसु वा परियावेणं, साय नो परिदेवए॥८॥ डाया-उष्णपरितापेन, परिदाहेन तर्जितः । ग्रीष्मे मा परितापेन, सात नो परिदेवयेत् ॥ ८॥ टीका-'उसिण. ' इत्यादि। ग्रीष्मे उष्णकाले, या हि-भास्करः किरणनिकरैर्दहन किरनि धरातलेऽद्वारमकरमास्तृणन्निव जीवजात परिवापयति, तरुगण परिशोपयति, शुष्कयति च । विमानो में एकभवावतारी रूप से उत्पन्न हुए। इसी प्रकार अन्य मुनियो को भी शीतवेदना के सहन करने मे अपना पराक्रम फोडना चाहिये ॥७॥ शीतकाल के बाद ही ग्रीष्मऋतु का आगमन होता है अतः शीत. परीपद को सहन करने के बाद चौथा उष्णपरीपह भी मुनिराज को सहन करना चाहिये, यह बात इस नीचे की गाथा द्वारा सूत्रकार प्रदर्शित करते है-'उसिण' इत्यादि।। ___अन्वयार्थ-(घिसु-ग्रीष्मे) ग्रीष्मकाल में कि जिसमे सूर्य अपनी प्रखर किरणों के निकर से इस समस्त भूमण्डल पर प्रवल ताप की वर्षा किया करता है, समस्त जीव जिसमे मानो अग्नि तापसे जलते हो, वृक्षसमूह जिस मे शुष्क जैसा हो जाता है। विचारे प्यासे भोले मृगो के झुण्ड के એ ચારે મુનિરાજ અનુત્તર વિમાનમાં એકભવ અવતારી રૂપથી ઉત્પન્ન થયા આ પ્રકારે અન્ય મુનિએ પણ શીતવેદના સહન કરવામાં પિતાનુ પરાક્રમ બતાવવું જોઈએ પાછા ઠડીના વખત પછી ઉનાળાને વખત આવે છે અહી શીતપરીષહને સહન કર્યો પછી ચેાથે ગરમીના પરીવહને પણ મુનિરાજે સહન કરવું જોઈએ से बात नीयन गाथायी सूत्र॥२ प्रगट डरे छ-" उसिण" त्याह स-पयार्थ:-घिसु-ग्रीष्मे श्री मा न्यारे सूर्य पाताना प्रभरिलाथी સમસ્ત ભૂમડળ ઉપર પ્રબળ તાપની વર્ષા વરસાવે છે સમસ્ત જીવ જેમાં અગ્નિના તાપની માફક બળતા હોય છે, વૃક્ષ સમૂહ શુષ્ક બની જાય છે.
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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