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________________ उत्तराध्ययन सूत्रे मूलम् चरत विरंय ह, सीय फुंसइ एगया । नाइ वेल" मुंणी गेच्छे, सोच्चा णं जिणसासणं ॥ ६ ॥ ३०० छाया - चरन्त विरत रूक्ष, शीत स्पृशति एकदा | नातिवेल मुनिर्गच्छेत् श्रुला खल जिनशासनम् ॥ ६ ॥ टीका - ' चरत ' इत्यादि । चरन्त = मोक्षमार्गे, ग्रामानुग्राम ना विहरन्त, विरत = सावद्ययोगतो निवृत्तम् - अग्निज्वालनादिभ्यो नित्तमित्यर्थः, रूक्ष = स्निग्धाहारतैलाभ्यद्द्र परिहारेण धूसराङ्ग मुनिम्, एकदा = शीतकाले, शीत स्पृशति पीडयति । • शीतकाले हि वनस्पतयो हिमनिपातेन परित परिशुष्का भवन्ति, पथिकाः सकोचितपाणयः पदैकमपि गन्तुमममर्थाः पद्गुयत् तत्र तत्रैव तिष्ठन्ति के चित् क्वणद्दन्तवीणिकाः कम्पमानगात्रा कृशानुसेननाय तदभिमुख शलभा इवापवन्ति । क्षुधा एवं पिपासा परीपह के सहन करने से मुनि का शरीर कृश हो जाता है इससे शीतकाल मे शीत की पीडा बहुत होती है इसलिये तीसरे शीतपरीपह को जीतना चाहिये, यही बात इस नीचे की गाथा से सूत्रकार प्रकट करते हैं " 'चरत विरय ' इत्यादि अन्वयार्थ - (चरत विरय - चरन्त विरत ) मोक्ष मार्ग मे अथवा एक ग्राम से दूसरे ग्राम मे विहार करने वाले तथा सावद्ययोग से विरक्त एव (लूह - रुक्षम् ) स्निग्धाहार तैलमर्दन आदि के त्याग से धूसर शरीर वाले ऐसे मुनि को ( एगया - एकदा ) शीतकाल में (सीय फुसइ - शीत स्पृशति ) शीत पीडित करता है। उस समय वह मुनि (ण - खलु ) निश्च ભૂખ અને તરસ સહન કરનારા મુનિનુ શરીર દુČળ ખની જાય છે, અને દુ॰ળ શરીરવાળાને ઠંડેથી બહુ પીડા થાય છે. આથી ત્રીજે ડિના પરિષહને મુનિએ જીતવા જોઈ એ એવી વાત સૂત્રકાર નીચેની ગાથાથી પ્રગટ કરે છે चरत विरय हत्याहि अन्वयार्थ —चरत विरय - चरत विरत भोक्षभा अथवा मेड गाभथी जीन आभे विहार पुरवावाणा तथा सावध योगधी विरक्त अने लह-रुक्षम् स्निग्धाहार तसभर्द्धन माहिना त्यागधी धूसर शरीरवाणा मेवा भुनिने एगया- एकदा शीतजणभा सीय फुलइ - शीत स्पृशति शीताण पीडित उरे छे ते समये ते भुनि ण- खलु
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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