SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ उत्तराव्ययसूत्र छाया-ततः स्पृष्ट पिपासया, जुगुप्सी लज्जासयतः । शीतोदक न सेवेत विकृतस्य एपणा चरेत् ॥ ४ ॥ टीका-'तओ पुट्ठो ' इत्यादि । तताक्षुधापरीपहानन्धर, पिपासपा-कृपया, स्पृष्टःव्यातः सन् , जुगुप्सी =जुगुप्सक. अनाचारविरत इत्यर्थ तथा-लज्जासयतः-लज्जायां-सयमे सम्यग् यत्नवानित्यर्थः । साधुः शीतोदक-सचित्तं जलन सेवेतन व्यापणुयात् किंतु विकृतस्य यवतण्डुलद्राक्षादिधावनोत्काल्नादिना वर्णगन्धरसस्पर्शेरन्यथाभाव प्राप्तस्य मासुकस्य जलस्य, प्रासुफजल त्वेकविंशतिविध भरतीत्याचारागाने द्वितीयश्रुतस्कन्ये नवमाध्ययने निगदितम् क्षुधापरीपह को सहन करने वाला मुनि को आहार की गवेषणा करते हुए पिपासा लगे,तथा अहार करने के बाद पिपासा लगे तोउसको सहन करना चाहिये, इस आशय से अय सूत्रकार पिपासापरीषह को कहते हैं-" तो पुढो" इत्यादि। (तओ-तत.) क्षुधापरीपह के अनन्तर (पिवासाए पुठो-पिपासयास्पृष्ट) पिपासा से व्याप्त होने पर भी (दोगुच्छी-जुगुप्सी) अनाचारविरत तथा (लज्जसजए-लज्जासयत) सयम की रक्षा करने मे प्रयत्न शील साधु (सीओदग न सेविज्जा-शीतोदक न सेवेत) सचित्त जल का सेवन नहीं करे । किन्तु (वियडम्सेसण चरे-विकृतस्य एषणा चरेत्) विकृत-यव, तण्डुल, एव द्राक्षा आदि के धोने से अथवा उनके उकालने से जिनके वर्ण, गध, रस तथा स्पर्श का परिवर्तन हो चुका है ऐसे प्रासुक जल की गवेषणा करे। तात्पर्य यह है कि पिपासा से पीडित होने સુધા પરિષહ સહન કરનાર મુનિને આહાર કર્યા પછી તરસ લાગે તેને સહન ४२वी नई मे माशयथी सूत्रा पिपासा परिषड छ तओ पुट्ठो-त्या तओ-तत क्षुधा परिषडना मनन्तर पिवासाए पुट्रो-पिपासयास्पृष्ट तरसथा व्यात खाप छत मनायार विरत तथा दोगुच्छि-जुगुप्सी मनायार वि२त तथा लज्जासजए-लज्जासंयत सयभनी २क्षा उपामा प्रयत्नशील साधु सीओदग न सेविज्ज-शीतोदक न सेवेत सयित्त नु सेवन न ४२ (8d वियहस्सेसण चरे-विकृतस्य एपणा चरेत् विकृत (अथित्त)-14, यामा, द्राक्ष વગેરેના ધોવાથી અથવા એને ઉકાળવાથી તેના વર્ણ, ગ ધ, રસ તથા સ્પર્શનું પરિવર્તન થઈ ચુકયું છે એવા પ્રાસુક જળની ગવેષણ કરે તા એ છે કે તરસથી પીડાતા હોવા છતા પણ સાધએ ચિત્તો
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy