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________________ २१८ उत्तराभ्ययनको उक्त चान्यन-सप्सा सुया नुसा माया, एयाहि नि सलगे। एगते नेव चिठेजा, अपठ्ठी सजए सया ॥१॥ छाया-स्वसा सुता स्नुपा माता, एतामिरपि न सलपेत् । ___ एकान्ते नै तिष्ठेच, आत्मार्थी सयतः सदा ।। १ ।। इति ॥ २६ ॥ अथ पिनीतशिष्यफर्तव्यमाहमलम-जं में बुद्धाऽणुसीसति, सीएण फरुसेंण वा । - मम लाभो ति" पेहाऐ, पैयओ त" पडिस्सुणे ॥२७॥ छाया-पन्मा बुद्धा अनुशासति, शीतेन परुपेण वा। . मम लाभ इति प्रेक्षया, प्रयतस्तत् प्रतिशृणुयात् ॥२७॥ टीका-'ज मे' इत्यादि। उदा: आचार्याः, यन्माम् शीतेन-शीतलाचनेन मृदुपचनेनेत्यर्थः, वा अथवा परुपेण-कठोरवचनेन अनुशासति शिक्षयन्ति, इदमनुशासन मम लाभकामका-कि-जिस प्रकार मुर्गे के बच्चेको कुलल-बिलाडी से भय बना रहता है उसी तरह ब्रह्मचारी को भी स्त्री के शरीर से सदा भय रहा करता है। इसलिये चाहे अपनी सासारिक बहिन भी हो, चाहे पुत्री हो, वहू हो, माता भी हो, तो भी एकान्तमें ब्रह्मचारी को इनके साथ उठना बैठना नही चाहिये और न यातचीत ही करनी चाहिये ।। २६ ॥ अब विनीत शिष्य का कर्तव्य करते है-'जमे' इत्यादि। अन्वयार्थ-विनीत शिष्य को इस प्रकार विचार करना चाहिये कि ( जमे वुद्धा-यन्मा बुद्धा) जो मुझे आचार्य महाराज (सीएण-शीतन) मीठे वचनों से, वा अथवा (फरुसेण-परुषेण) कठोर वचनों से (अणुसा. सति-अनुशासति) अनुशासित करते हैं अर्थात शिक्षा देते हैं सा (मम लाभो-मम लाम.) यह मेरे लिये एक बडा भारी लाभ है, क्यों कि આ માટે ભલે પિતાની સ સારીક બહેન હોય, ચાહે પુત્રી હોય, વહુ હોય, અથવા માતા હોય તે પણ એકાંતમાં એમની સાથે બેસવું ઉઠવું કે વાતચિત પણ બ્રહ્મચારીએ કરવી ન જોઈએ ૨૬ वे विनीत शिष्पनु ४तव्य ४ -जमे त्या વિનીત શિવે આ પ્રકારનો વિચાર કરવો જોઈએ કે, ५-qयार्थ-जमेसुद्धा-यन्माबुद्धा भर मायार्य महारा०४, सीएण-शीतेन भी। क्यनाथी, वा अथ। फरुसेण-परुपेण ४२ क्यनाथी, अनुसासर्ति-अनु. शास ति मनुशासित ४रे छ, अर्थात् शिक्षा मापे छ ममलामो
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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