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________________ प्रियदर्शिनी टीफा अ० । गा० २४ निरयद्यभाषाभेदा २९९ -एपा भाषा मृपा जक्तव्या नेत्यर्थः । प्रश्नकर्तुरयमभिप्राय:- आशयिष्यामहे' इत्यादिका भाषा भविष्यकालविपया, साचान्तरायसभवेन कदाचिदर्थाभिधायिनी न स्यात् । तथा एकार्यपियाऽपि बहुवचनान्ततयाऽभिहिता तस्मादयथार्या । तथा-आमन्त्रणीप्रभृतिका, सत्यभापावदर्थे नियता नास्ति विधिप्रतिषेधयोधकत्वा भावात् , अत. किमिय रक्तव्या स्यात् , उत न ' इति । अर्थ ऐसा होता है कि हे सयत' प्रतिक्रमण कर्म से तुम अपने पायोका क्षय करो। यह बोध शीघ्र नहीं हो सकता है, अतः इसे अव्याकृत भापा कहा है। अयचा-बालककी भाषाको अव्याकृत भाषा कहते है १२। ये सर भाषाय प्रज्ञापनी हैं, यह प्रज्ञापनी भाषा मृपास्वरूप नहीं है। प्रश्न करने वालेका कहने का हेतु यह है-जर यह कहा जाता है कि हम 'शयनकरेंगे' इत्यादि, तर यह भापा भविष्यत् काल को विपय करने वाली होने से अर्थकी पूर्ति में असमर्थ जान पडती है, कारण कि अन्तराय कर्म के उदय की सभावना होने से उस विधक्षित अर्थकी कदाचित् पूर्ति न भी हो सके तो फिर जिस प्रकार मृपाभापा अर्थको कहनेवाली नहीं मानी जाती है उसी प्रकार यह भाषा भी अनर्थाभिधायिनी मान लेना चाहिये तया" हम शयनकरेंगे" इस कथनमे "मैं शयनकरूँगा" इस एक वचन के ही प्रयोग मे घरवचन का प्रयोग किया गया है । जैसे एक को अनेक करनेवाली भाषा अयथार्थ मानी जाती है। उसी प्रकार यह भी अयधार्थ मानी जानी चाहिये । इसी तरह आमन्त्रणी भाषा भी सत्य भापाकी तरह अर्थ में नियत नहीं है, क्यों कि इनमें विधि एव प्रतिपेध की योधकता का अभाव है, इसलिये यह सदेह होता है कि यह योलने के योग्य है अथवा नही है । इस प्रकारकी आशका का यह उत्तर है कि સયત પ્રતિક્રમણ કર્મથી તમે તમારા પાપનો ક્ષય કરે આ બેધ જલદી થઈ શકતું નથી આથી આને અવ્યાકૃત ભાષા કહેવામાં આવે છે અથવાબાળકની ભાષાને અવ્યાકૃત ભાષા કહેવામા આવે છે ૧૨ આ બધી ભાષા પ્રજ્ઞાપની છે આ પ્રજ્ઞાપની ભાષા મૃષા સ્વરૂપની નથી પ્રશ્ન કરનારના કહેવાનો મતલબ એ છે કે, જ્યારે એમ કહેવામાં આવે છે કે, “ અમે સુઈ એ છીએ... આ કથનમાં “હુ સુઉ છુ ” આ એક વચનના પ્રયોગમાં બહુ વચનને પ્રયોગ કરવામા આવેલ છે જેમ એકને અનેક કહેવાવાળી ભાષા અયથાર્થ માનવામાં આવે છે એ રીતે પણ અયથાર્થ માનવી જોઈએ આ રીતે આમન્ત્રણ ભાષાઓ પણ સત્ય ભાષાની જેમ અર્થમાં નિયત નથી કેમકે, એનામા વિધિ અને પ્રતિધની લેધકતાને અભાવ છેઆ માટે એ સ દેહ થાય છે, એ બલવાને ગ્ય છે,
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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