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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा० २३ सूत्रार्थयोरर्थमहत्त्वम् तर मान्ति स्म । एव पेटिकास्थानीये मो वहून्यर्थपदानि वर्तन्ते, तन सूत्रमेव गदर भवितुमर्हति नार्थ इति । किंचार्यस्य महत्चमेकान्ततो नास्ति, प्रथमे उत्क्षिप्तज्ञाते हि 'अनुकम्पा कर्तव्या' इत्यों बहुभिः सौर्णितः । तथा-अष्टादशे सुम्मादारिकाज्ञाते वर्णरूपालादिद्धयर्थ नाहारयितव्यम् , इत्यर्थों बहुभिः सूत्रैर्वर्णितः, तस्मादर्थो न महान् किन्तु सूनमेन महदिति चेत् -? ___ अमोच्यते-पूर्व सूत्र पश्चादः, इति न सभवति । अर्थस्य हि सूत्रतः पश्चाद्भावित्व न युज्यते, अर्थ पिना सूत्र निवारहित सत् कीदृश स्यात् ? असवद्ध में अनेक वस्त्र रख दिये जाते हैं पतावता पेटी में ही बादरता आती है वस्त्रों में नहीं । क्यो कि उसके आधार से ही नहुन वस्त्र उसमे समा जाते हैं। इसी तरह पेटी के स्थानीय सूत्र में भी बहुत से अर्थपद रहा करते है इसलिये सूत्र को ही बादर होने का प्रसग प्राप्त होता है अर्थ को नहीं। तथा-अर्थ मे महत्ता भी एकान्त से स्थापित नहीं होती है। "प्रथमे उत्क्षिप्तजाते" ज्ञातामुत्र के प्रथम उत्क्षिप्तजात नामक अध्ययन में भगवान ने फरमाया है कि अनुकपा करनी चाहिये इस प्रकार का अर्थ बहत सूत्र से वर्णित किया है । तथा “ अष्टादशे सुसमादारिकाज्ञाते" अर्थात् इसी ज्ञाता मुत्र के अठारवें सुसुमादारिकानामक अध्ययन मे वर्ण, रूप, बल आदि की वृद्धि निमित्त मुनियो को आहार नही करना चाहिये यह अर्थ बहुत मुत्रो से वर्णित किया है। इसलिये अर्थ मान नहीं है किन्तु सूत्र ही मान है यही यात ज्ञात होती है। ___ उत्तर-पहिले सूत्र होता है पश्चात् अर्थ यह कथन युक्तियुक्त नहीं है, આવે છે, વસ્ત્રોમાં નહી, કેમ કે પેટીના આધારથી જ ઘણા વો તેમા સમાઈ શકે, એવી રીતે સ્થાનીય સૂત્રમાં પણ ઘણું અર્થ પદ રહ્યા કરે છે માટે જ સૂત્રને બાદર હેવાને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે, અર્થને નહી તેમ અર્થમાં મહત્તા પણ એકાન્તથી સ્થાપિત થતી નથી, જ્ઞાતા સૂત્રના પ્રથમ ઉક્ષિતિજ્ઞાત નામના અધ્યયનમાં ભગવાને ફરમાવ્યુ કે, અનુકમ્પ કરવી જોઈએ આ પ્રકારને અર્થ पण सूत्राथी वाम मावेस छेत! " अष्टादशे सुसमादारिका ज्ञाते" अर्थात् આ જ્ઞાતા સૂત્રના અઢારમા “સુ સમાદારિકા” નામના અધ્યયનમા વર્ણ, રૂપ, બળ વગેરેની વૃદ્ધિ નિમિત્તે મુનિએ આહાર ન કરવો જોઈએ આ અર્થ ઘણું સૂત્રમાં વર્ણવવામાં આવેલ છેઆ માટે અર્થ મહાન નથી પણ સૂન જ મહાન છે આ વાત જ્ઞાત થાય છે ઉત્તર–પહેલા સૂત્ર હોય છે પછી અર્થ આ કહેવુ ચુક્તિ યુકત નથી, કારણ
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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