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________________ १४० उत्तगध्ययनरत्र अय भावः-बहुश्रुतोऽपि शिष्य सशये सति गुरु पृच्छति सूनार्थम् , तत्र विनयपूर्विकैव प्रच्छना करणीया यथा गुरोराशातना न भवेदिति । उत्कुटुक इति विशेषणेनइन्द्रियदमनशीलत्व विनीतत्य च सूचितम् , मामलिपुट इत्यनेन सर्पविधग्नियवत्व जातिकुलसम्पनत्व च सूचितम् ॥ २२ ॥ मूलम्-एव विणयजुत्तस्त, सुत्त अय च तदुभय । पुच्छमाणस्स सीसस्स, वागरिज्ज जहासुय ॥२३॥ छाया-एव विनययुक्तस्य, सूनम् अयं च तदुभयम् । पृच्छतः शिष्यस्य, व्याकुर्याद् यथाश्रुतम् ॥ २३ ॥ टीका-एव विणयजुत्तस्स' इत्यादि । एव-उक्तमकारेण विनययुक्तस्यविनयवतः, सूत्रम्-कालिकोत्कालिकादि, अर्थ-तद्बोध्य, सूनाभिप्रायमित्यर्थः । निवृत्तिके लिये गुरुके सन्मुख जावे और बडे विनयके साथ उस सशय की निवृत्ति करे । गुरु महाराज का विनय भक्ति मे यदि जरा सी भी त्रुटि हो जायगी तो शिष्य आशातना दोष का भागी होगा। "उत्कुटुक" इस विशेषण से सूत्रकार यह सूचित करते है कि जो इस आसन से बैठता है वह साधु इन्द्रिय दमन शोल तथा विनीत होता है । "प्राजलिपुट" इस .विशेषण से शिष्य मे सभी प्रकार के विनयगुण तथा जातिसम्पन्नता एव कुल सम्पन्नता सूचित होती है ।गा २२|| 'एव' इत्यादि। अन्वयार्थ-(एव-एव) पूर्वोक्त प्रकार से (विणयजुत्तस्सविनययुक्तस्य) विनयधर्म से युक्त होकर (सुत्त अथ च तदुभय पुच्छमाणस्स-सूत्र अर्थ तदुभय पृच्छत.) सूत्र-अर्थ और सूत्र अर्थ दोनों को पूछने वाले (सीसस्स-शिष्यस्य) शिष्य को (जहासुय કરી ત્યે ગુરુ મહારાજની વિનય ભક્તિમાં જરા પણ ભૂલ થાય તે શિષ્ય मासातना होपना माजी मन छ “उत्कुटुक" ॥ विशेष थी सूत्रा२ को એ સૂચિત કરે છે કે, જે આ આસનથી બેસે છે તે સાધુ ઇન્દ્રિયનુ દમન अनार तथा विनित खाय छे “प्राञ्जलिपुट" 20 विशेषथी शिष्यमा सर्प પ્રકારના વિનયગુણ તથા જાતિસ પન્નતા અને કુળસ પન્નતા દેખાઈ આવે છે રજા एव इत्याहि स-क्यार्थ - एव-एव पूर्वरित प्रारथी विणयजुत्तस्स - विनययुक्तस्य विनय धर्मथी युत मनी सुत्त अत्य च तदुभय पुच्छमाणस्स-सूत्र अर्थ सदभय पृच्छत सूत्र-म अने सूत म मान्नेने पुछा ..
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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