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________________ १३४ ANIMAN उत्तराध्ययनसूत्रे पवेशन, पर्यस्तिका, ताम् , पसपिण्ड-पाहुद्वयन कायवेष्टन च नेय कुर्यात् । अपि वा=अपि च गुरूणाम् अन्ति-सनिधौ पादौ चरणी प्रसारितो कत्ला न तिष्ठेत् । इदमुपलक्षणम्-एकजसोपरि अपरचरण निधायापि न तिष्ठेत् । तयासत्यग्नियः स्यादिति भावः ॥ १९ ॥ मूलम्-आयरिएहि वाहितो, तुसिणीओ न कयाई वि। पसायपेही नियोगट्ठी, उवचिठे गुरु सया ॥२०॥ छाया-प्राचार्याहृतः तूष्णीको, न कदाचिदपि। प्रसादमेक्षी नियागार्थी, उपतिष्ठेत् गुरु सदा ॥ २० ॥ टीका-'आयरिएहिं०' इत्यादि । आचार्य:-गुरुभिः, व्याहृतः-आहूतः, यद्वा-उक्तः सन् तूष्णीक. मीनाग्लम्बी, कदाचिदपि-ग्लानाद्यवस्थायामपि न भवेदिति शेषः । किंतु प्रसादप्रेक्षी-प्रसाद (पक्खपिंड च नेव कुम्जा-पक्षपिण्ड च नैव कुर्यात्) इसी प्रकार दोनो हाथो से घुटने वाधकर तथा पीठ भाग से लेकर दोनों घुटनों को वस्त्र बाधकर भी वैठना गुरु महाराज की आशातना है। (पाए पसारिए वावि न चिट्टे-पादौ प्रसार्य वापि न तिष्ठेत् ) अर्थात् गुरु महाराज के सामने पैरो को पसार कर भी शिष्य को वैठना उचित नहीं है। इसी तरह अर्ध पद्मासन के रूप में भी उनके समक्ष नहीं बैठना चाहिये। ऐसा करने से अविनय दोष लगता है ॥ १९ ॥ 'आयरिएहिं० ' इत्यादि । अन्वयार्थ-शिष्य को चाहिये कि वह (आयरिएहिं वाहित्तोआचार्य. व्याहृतः सन् ) आचार्य तथा अपने से बडो द्वारा जब घुलाया आरे सवाथी मशातनानी होष वागे छ पक्सपिंड च नेव कुज्जा-पक्षपिण्ड च नैव कुर्यात् २ रे सन्न. हायान ४ ५२ वी तथा વાસાના ભાગથી લઈ અને ઘુટણને વસ્ત્રથી બાધી બેસવાથી પણું ગુરુ भवानी मशातना थाय छ पाए पसारिए वावि न चिठे-पादौ प्रसार्य वापि न રિટેન અર્થાત્ ગુરુ મહારાજની સામે પગ લાંબા કરીને પણ શિષ્ય બેસવુ ઉચિત નથી આ રીતે અધ પદ્માસનના રૂપથી પણ એમની સામે બેસવું ન જોઈએ એમ કરવાથી અવિનય દેષ લાગે છે ! ૧૯ 'आयरिएहिं.' त्याह अन्वयार्थ-वि शिष्य भाटे मे ४३री छेते आयरिएहिं वाहित्तोआचार्य व्याहृतः सन् मायार्थ तथा पोतानाथी भाटा
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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