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________________ उत्तराध्ययनसूत्रे विनयस्य फल्माह-सीलमित्यादि । यतः पिनयात् , शीलन्मूलोत्तरगुणलक्षणं मतिलभेत-माप्नुयात् । अनेन विनस्य फ्ल शील्प्राप्तिरित्युक्तम् । शीलस्यापि फल प्रदर्शयन्नाह-'बुद्धपुत्ते.' इत्यादि । बुद्धपुत्रः-युद्धस्य आचार्यस्य पुत्र इव पुत्रः-शीलधारी शिष्यः, पुनशिप्ययोः शिक्षणीयतया साम्यात् , अतएर नियागार्योनियागो मोक्षस्तमर्थयतीति नियागार्थी-मोक्षाभिलापी कुतश्चित्-कुलगणगच्छतः न निष्कास्यते न वहिष्क्रियते । अय भाष:-विनीतः कुल्गणगच्छाना सर्वेषा __ अब उपसहार करते हैं-'तम्हा ' इत्यादि। ___ अन्वयार्थ-अतः (तम्रा तस्मात्) अविनीत शिष्य की सर्व जगर दुर्दशा होती है साधु का कर्तव्य है कि वह (विणय-विनयम् ) विनयरूप धर्मका (सिज्जा-ण्पयेत् ) पालन करे। इस विनय धर्म के पालन करनेका क्या फल है-इस यातको (सील पडिलभेन्जओ-शील प्रति लभेत यतः) इस पद द्वारा सूत्रकार प्रकट करते हुए करते हैं कि यह विनयधर्म, आचरित होने से आचरण करने वाले साधु के लिये मूलगुण और उत्तरगुणोंकी प्राप्ति कराता है। शील की प्राप्ति होने से वर शीलधारी शिष्य (बुद्धपुत्ते नियागट्टी-युद्धपुत्रः नियागाधी) गुरुजनों की दृष्टि में अपना पुत्र जैसा हो जाता है। क्यो कि पुत्र शिक्षणीय होता है और वैसे शिष्य भी शिक्षणीय होता है । इसी विचार से शिष्य को यहा पुत्र जैसा बतलाया गया है जब वह गुरु कृपा का पात्र हर तरह से हो जाता है तब यह बात भी स्वत उसके हृदय मे स्थान वे ७५ २ ४२ छ-' तम्हा ' त्याह अन्वयार्थ -सटमा माटे (तम्हा-तस्मात) अविनीत शिष्यनी सई स्थणे हु। थाय छ साधुनु ४०य छेते (विणय-विनयम् )विनय३५ धनु (एसिज्जाएपयेत् ) पासन उरे मा विनय धर्मनु पालन २वानु शु३॥ छ - पातने (सील पडिलभेज्जओ-शील प्रति लभेत यत ) मा ५६ वा। सूत्रा२ પ્રગટ કરતા કહે છે કે આ વિનય ધર્મ આચરિત હોવાથી આચરણ કરવાવાળા સાધુને માટે મુળગુણ અને ઉત્તર ગુણોની પ્રાપ્તિ કરાવે છે શીલની પ્રાપ્તિ थवाथी से शीराधारी शिष्य (बुद्धपत्ते नियागट्ठी-धुद्ध पुत्र नियागार्थी) ગુરૂજનની દ્રષ્ટીમાં પિતાના પુત્ર જે બની જાય છે કેમકે પુત્ર શિક્ષણીય હોય છે અને આવા શિષ્ય પણ શિક્ષણીય હોય છે આ વિચારથી શિષ્યને અહિં પુત્ર જે બતાવવામાં આવેલ છે. જ્યારે તે ગુરૂકૃપાને પાત્ર દરેક રીતે બને છે ત્યારે આ વાત પણ સ્વત એના દિલમાં સ્થાન કરી જાય છે. કે
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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