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________________ स्थविरावली छाया त्रिसमुद्राख्यातकीर्ति, द्वीपसमुद्रेषु गृहीत [पेचालम् ] प्रमाणम् । वन्दे आर्यसमुद्रम्, अक्षुभितसमुद्रगम्भीरम् अर्थः ||२९|| में पूर्वदक्षिण और पश्चिम इन तीन समुद्रपर्यन्त ख्यात कीर्तिवाले अनेक द्वीप और समुद्र के विषय में इन के प्रमाण के जानकर अर्थाम् द्वीपसमुद्रप्रज्ञप्तिज्ञाता अक्षुभित-क्षोभरहित स्थिर समुद्र के समान गम्भीर श्री आर्यसमुद्राचार्यजी को वन्दन करता हूँ । ये आर्य समुद्र जी - शाण्डिल्यजी के शिष्य थे ।। २९ ।। मूलम् १ ર ३ ५ ४ भणगं करगं झरगं, प्रभावगं णाणदंसणगुणाणं । ७ वंदामि अज्जमंगुं, सुयसागरपारगं धीरं ॥ ३० ॥ छाया- भाणकं कारकं स्मारकं, प्रभावकं ज्ञानदर्शनगुणानाम् । वन्दे आर्यम, श्रुतसागरपाटकं धीरम् ||३०|| अर्थ: मैं कालिक आदि सूत्रों के पाठक [पढनेवाले] सूत्रोक्त क्रियाकलाप के कारक [ करनेवाले ] स्मारक धर्मके ध्यायक ( ध्यान करनेवाले ) इसी कारण से ज्ञान दर्शन और उपलक्षणतया चारित्ररूप गुणों के प्रभावक [ प्रदीप्त करने वाले ] शास्त्ररूप समुद्र के पारङ्गत और धीर [ विकार कारण प्राप्त होने पर भी अक्षुब्धचित्तवाले ] श्री आर्यमङ्गु - नामक आचार्य को वन्दन करता हूँ, ये आर्यमङ्गुजी श्री आर्यसमुद्रजीके शिष्य थे ||३०| मूलम् १३ ३ १ ७ ४ ५ ६ २ वंदामि अजधम्मं तत्तो वंदे य भद्दत्तं च । " ८ ९ १२ १० ११ तत्तो य अज्जवइरं, तवनियमगुणेहिं वइरसमं ॥ ३१ ॥
SR No.009350
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages940
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size58 MB
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