SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नन्द्रिकाटीका - ज्ञानभेदाः (खोमोक्षसमर्थनम् ) ૨૯૦૯ ननु ' यत्राभिनिवोधिकज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानम् ' इत्युक्ते सति 'यत्र श्रुतज्ञानं तत्राभिनिवोधिकज्ञान' - मिति ज्ञातं भवत्येव किं पुनस्तदुपादानेनेति चेत्, अत्रो च्यते - नियमतो न ज्ञायते तस्मान्नियमावधारणार्थं ' यत्र श्रुतज्ञानं तत्राभिनिवोधिकज्ञान - मित्युच्यते । नियमावधारणमेव स्पष्टयति- ' दोवि एयाइं० ' इत्यादि । आभिनिबोधकश्रुते अन्योन्यमनुगते = परस्परं संवद्धे, अनयोर्नियमेन सहभावोऽस्तीति भावः । ननु यद्यनयोः परस्परं नियमेन सहभावस्तर्हि अनयोरभेद एवास्तु कथं भेदेन व्यवहारो भवतीत्यत आह- ' तह वि० ' इत्यादि । यद्यप्येते उभे ज्ञाने अन्योन्यानुगते शंका- " जत्थ आभिणिबोहियनाणं तत्थ सुयनाणं " " जहां आभिनियोधिकज्ञान होता है वहां श्रुतज्ञान होता है, और जहां श्रुतज्ञान होता है वहां आभिनिबोधिकज्ञान होता है तो फिर सूत्रकार को इस बातको प्रकट करने के लिये सूत्रमें " जत्थ सुयनाणं तत्य आभिणिबोहियनाणं फिर इन पदों के रखने की क्या आवश्यकता थी १ । 39 उत्तर - नियम से यह बात नहीं जानी जाती है इसलिये इस प्रकार के नियम के निर्णय के लिये " जत्थ सुयनाणं तत्थ अभिनिवोहिarti " ऐसा कहा है । इसी नियम का निर्णय वे 'दोऽवि एयाई अण्णtoryगाई' इन पदों से करते हैं। इसमें बतलाया गया है कि ये दोनों ज्ञान परस्पर संबद्ध हैं, अर्थात् नियमतः इनका सहयोग है । , शंका- यदि इनका परस्पर में नियमतः सहभाव है तो फिर इनमें कोई भेद नहीं रहना चाहिये, और भेद से जो इनका व्यवहार होता है ८८ शा- जत्थ आभिणिवोहियनाणं तत्थ मुयनाणं " या मालिनिमोधि જ્ઞાન હેાય છે ત્યાં શ્રુતજ્ઞાન હેાય છે'' આટલું કહેવાથી જ જ્યારે એ વાત જાણી શકાય છે કે જ્યાં શ્રુતજ્ઞાન હાય છે ત્યાં આભિનિષેાધિકજ્ઞાન હોય છે તે પછી सूत्रारने या वात प्रगट खा भाटे सूत्रमा “ जत्थ सुयनाणं तत्थ आभिणिबोहिया ” એ પદોને મૂકવાની જરૂર શી હતી ? ઉત્તર—નિયમથી આ વાત જાણી શકાતી નથી તેથી આ પ્રમાણેના નિયभना निर्णय भाटे “ जत्थ सुयनाण' तत्थ आभिनित्रोहियानाण " नियमन। निर्णय तेथे "दोऽवि एवाई अण्णमण्ण मणुगयाई " છે. તેમાં બતાવ્યુ` છે કે એ બન્ને જ્ઞાન પરસ્પર સંબદ્ધ છે, भतः तेभने। सहयोग छे. भधुं छे. मेन से पोथी रे એટલે કે નિય શંકાજો તેમના પરસ્પરમાં નિયમતઃ સહભાવ છે તે પછી તેમનામાં કોઈ ભેદ રહેવા જોઇએ નહીં, અને ભેદથી જે તેમને વ્યવહાર થાય છે તે નષ્ટ
SR No.009350
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages940
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size58 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy