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________________ मन्दीरले २६० भव्योऽपि कश्चिद् दर्शनविरोधी सिद्धो न भवति, इत्यत आह-'णयावि देसणविरोहिणी' इति, न चापि दर्शनविरोधिनी ' इति । दर्शनमिह सम्यग्दर्शनंतत्त्वार्थश्रद्धानरूपं परिगृह्यते, न खलु तद्विरोधिनी, आस्तिक्यादिदर्शनादिति भावः। नन्धमानुष्यपि दर्शनाविरोधिनी, सा तु निर्वाणाय नो कल्पते, तस्मादाह‘णो अमाणुसा' इति । 'नो अमानुपी ' इति, मनुष्यजातौ भवा मानुषी, तत्र विशिष्टकरचरणोरुग्रीवाद्यवयवसंनिवेशदर्शनादिति भावः । ननु मानुष्यपि अनार्योत्पन्नाऽनिष्टा तदपनोदार्थमाह-"णो अणारिउप्पत्ती" इति 'नो अनार्योत्पत्तिः । अनार्येषु अनार्यकुलेषु, उत्पत्तिर्यस्याः सा तथाविधा नास्तीति। अभव्या" स्त्री अभव्य नहीं है । यद्यपि स्त्रियों में भी कितनीक स्त्रियां अभव्य होती हैं तथापि सर्व अभव्य ही हैं ऐसी बात नहीं है । संसार से निर्वेद, धर्म से अद्वेष तथा शुश्रूषा आदि गुण उनमें देखे जाते हैं, "न चापि दर्शनविरोधिनी" भव्य होते हुए ये सम्यग्दर्शन की विरोधिनी भी नहीं होती है । कितनेक प्राणी तो ऐसे होते हैं जो भव्य होनेपर भी सम्यग्दर्शन से विरोध रखते हैं, परन्तु ये ऐसी नहीं हैं, क्यों कि इनमें आस्तिक्य आदि गुण देखे जाते हैं। “न अम्मनुषी" मनुष्यजातिमें ये उत्पन्न होती हैं, क्यों कि इनमें मनुष्य जाति की रचना के अनुसार विशिष्ट-कर, चरण, उरु, एवं ग्रीवा आदि अवयवों की रचना देखी जाती है। इस लिये ये "अमानुषी" नहीं हैं अर्थात् मनुष्य हैं। "न अनार्योत्पत्तिः" कितनीक मानुषी भी होती हैं परन्तु यदि वे अनार्या हैं तो निर्वाण के योग्य नहीं मानी जाती हैं अतः ये अनायेજે કે સ્ત્રીઓમાં પણ કેટલીક સ્ત્રીઓ અભચુ હોય છે તે પણ સર્વે અભવ્યજ છે એવી વાત નથી. સંસારથી નિવેદ, ધર્મથી અદ્વેષ, તથા સેવા આદિ ગુણ तमनाम ना ५ छ. “न चापि दर्शनविरोधिनी" भव्य धन तेथे। સમ્યગુદર્શનની વિધિની હેતી નથી. કેટલાક પ્રાણીઓ એવાં હોય છે કે તેઓ ભવ્ય હોવા છતાં પણ સમ્યગદર્શનથી વિરોધ રાખે છે, પણ તેઓ એવી નથી २५ तमनामा मास्तिता माहि गुण वा भणे छे. “न अमानुषी" મનુષ્યજાતિમાં તેઓ ઉત્પન્ન થાય છે કારણ કે તેમનામાં મનુષ્યજાતિની રચના પ્રમાણે વિશિષ્ટહાથ, પગ, છાતી, અને ગ્રીવા વગેરે અવયની રચના જોવામાં साव छ. भाटे तसा “ अमानुषी" नथी “नो अनार्योत्पत्तिः"टसी भानुषी ५५ હોય છે પણ જો તેઓ અનાર્યો હોય તે નિર્વાણુને ચગ્ય મનાતી નથી તેથી
SR No.009350
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages940
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size58 MB
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