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________________ १९६ ३ - असाधारणम् -मत्यादिज्ञानैरतुल्यत्वात् । ४ - निरपेक्षम् — इन्द्रियाद्यपेक्षाया अभावात् । ५ - विशुद्धम् - निरवशेषज्ञानदर्शनावरणाय कर्ममळक्षयात् । ६ - सर्वभावप्रज्ञापकम् — सर्व जीवादिभावप्ररूपकत्वात् । मन्दीसचे ननु केवलज्ञानं मूकं तत् कथं प्ररूपकमुच्यते ? शब्दो हि प्ररूपणां कर्तुं शक्नातीति चेत् , उच्यते - उपचारात् प्ररूपकत्वं केवलज्ञानस्य सिध्यति । यतः केवलज्ञानदृष्ट सर्वभावान् शब्दः प्ररूपयति, तस्मात केवलज्ञानमेव प्ररूपकमिति मन्यते । २ समग्र - यह जिस प्रकार एक-जीव पदार्थ को सर्वथा रूपसे जानता है उसी प्रकार वह दूसरे पदार्थों को भी सर्वथा रूप से जानता है । किसी भी पदार्थ के जानने में इसमें न्यूनाधिकता नहीं है । इसलिये यह 'समग्र ' है । ३ साधारण -मत्यादिक जो और ज्ञान हैं उनकी अपेक्षा यह विशिष्ट है, अद्वितीय है इसलिये यह 'असाधारण ' है । ४ निरपेक्ष- इन्द्रियादिकों की सहायता से यह रहित है इसलिये 'निरपेक्ष' है । ५ विशुद्ध- समस्त ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कर्म के विगम (क्षय) से यह होता है अतः इसे 'विशुद्ध' कहा है । ६ सर्व भावज्ञापक - - यह समस्त जीवादिक पदार्थों का प्ररूपक है इसलिये यह 'सर्वभावप्रज्ञापक ' है । शंका- केवलज्ञान को तो मूक बतलाया गया है, फिर यह जीवादिक पदार्थों का प्ररूपक कैसे हो सकता है ? (२) समग्र —भ शेड व पद्धार्थने सर्वथा ३५थी लागे छे मेन रीते આ જ્ઞાન ખીજા પદાર્થોને પણ સર્વથારૂપથી જાણે છે. કાઈ પણ પદાર્થને જાણવામાં तेभां मोछा-वधु यागु नथी, तेथी ते समय छे. (3) असाधारण - भत्याहिङ ने जील ज्ञान छे तेभना रतां मा ज्ञान विशिष्ट छे, अद्वितीय छे, भाटे ते असाधारण छे. (४) निरपेक्ष - न्द्रियाद्दिनी सहायता विनानु (4) विशुद्ध- समस्त ज्ञानावरण भने दर्शनावर થી તે ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી તેને વિશુદ્ધ કહેલ છે. होवाथी ते निरपेक्ष छे. उर्भना विगभ (क्षय) (९) सर्वभावप्रज्ञापक—ते समस्त वाहिर यहार्थेनु अ३ छे तेथी ते સર્વભાવપ્રજ્ઞાપક છે. શંકા—કેવળજ્ઞાનને તે મૂક દર્શાવ્યું છે તે તે જીવાદિક પદાર્થાનુ પ્રરૂપક કેવી રીતે હાઈ શકે ?
SR No.009350
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages940
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size58 MB
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