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________________ सुदर्शिनी टीका अ० ४ मु०३ अकल्पनीयनिरूपणम् शप्कुटी' पृडी' इति प्रसिद्धा', वेष्टिमा - हिमी' प्रति प्ररिद्धाः, वोल्का'खाद्यविशेपा, चूर्ण कोशकानि-चूर्णभृताः पराक्रतिका भक्ष्यभेदाः 'गूजा' 'क चोरी ' इति भाषा प्रसिद्धा, पिन्ड' = गुडादिपिष्ट', शिखरिणी = श्रीखण्ड इति प्रसिद्धा , वर्तक बडा' इति भापा प्रसिद्धम् , मोडका =अमिडाः, सीरदुग्धम् , दधिपसिद्धम् , सर्पि -वृतम् , नवनीतम्-' माखन' इति प्रसिद्धम् , तेलगुड प्रसिद्धम् , खण्डम् ' खाड' इति प्रसिद्धम , मरयण्डिका=' मिश्री' इति प्रसिद्धा, मधुप्रसिद्धम् , एते पदार्थी आमाफर्मादि दोपपिता. सायुभिर्जनीया । तथा वायका: 'खाजा' इति भापा प्रसिद्रा , व्यजनानिन्तकादोनि-रसयुकशास्पदार्या ा कही' आदि भाषा प्रसिद्वाः, तेषां ये विधय प्रकाराः, एतेऽपि सदोपा वर्जनीया । एपा द्वन्द्व , एने आदो यस्य तत्तथोक्तम् , एव शिव 'पणीय' प्रणीत-स्निग्यमशन च कारण बिना पर्जनीयम् । एतत्सर्व निःपाप-'उपस्सप' भजित-अग्नि में मुजेहए जो गेटु आदि धान्य-तिलपिष्ट, सपमूग आदि की दाल, शकुली-पुडी, वेष्टिम-वेढमी, वर्षोलक-एक प्र. कार का ग्वायविशेष, चूर्णकीय-कचौड़ी, गजा, पिण्ट-गुड आदि, शिखरणी-श्रीग्वार, वर्तक वडा, मोदक लट्ट, क्षीर-दव, सर्पि-धृत,नवनीत-मरग्यन, तिल, गुड, खड-ग्वाड, मत्स्यण्डिका-मिश्री, मधु-शरद ये पदार्थ यदि आधाकर्म आदि दोपसे दूपित हों तो मातुपुरुपोदारा सदा वर्जनीयहें। ग्वाजा, तक आदि व्यजन, अयमा रमरक्त माक पदार्थ जैसे कढीआदि, तपाइन भक्ष्य पदार्थोके जो और भी भेद होते हे वे सर मी यदि मदोप हों तो साधु को वर्जनीय है। तथा भोज्य ये ओदनादि रूप स्निग्ध पदार्थ निर्दोप भी हों तो भी नायु विना कारण के अपने उपयोग मे इन्हें नहीं लेना चाहिये और इन सब निर्दीप भोज्यपदार्थो का श प, घG मा धान्य,पलल-माउa da, सप-म मानी हाण, शएकुली-धुरी, वेप्टिम-३भी, वोलक-मे २नु ा, चूणकोशक-यी त, पिण्ड-गो 16 शिसरिणीशिप, वर्तक-११, मोक साडू क्षीरदूध, डी साप-नवनीत-भाम, तस, गाण, सड-3, मत्स्यण्टिकाમિશ્રી, સાકર મધુ-મધ એ પદાર્થો જે અધાકર્મ આદિ દોષથી દૂષિત હોય તે સાધુઓએ તેમને ત્યાગ કરવા યોગ્ય છે તથા દાસ અને મારતે સર્વથા ત્યાજ્ય છે ખાજા, તઝ આદિ વ્ય જન, અથવા રસયુક્ત શાક, કઢી વગેરે પદાથ, તથા એ ભઠ્યપદાર્થોના બીજા પણ જે ભેદ હોય છે, તે બધાને પણ જે તે સદોષ હોય તે સાધુએ ત્યાગ કરવો જોઈએ તથા ભોજનને જે તે એનાદિ સ્નિગ્ધ પદાર્થ નિર્દોષ હેડ્ય તો પણ સાધુએ કારણ વિના તેમને
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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