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________________ २२२ प्रश्न-याकरणाचे एभिः गालन्ते शोभन्ते यास्ताभिः, तया- अणुफलपेमियाहि ' अनुल प्रेमिकाभिः अनुकूल-मनोऽभिरचिकर प्रेग-प्रीतिर्यामा ताभिः, पनाहशीभिः 'सद्धिं ' सार्धम् , 'अणूभृया' अनुभूअनुमापिपपीता 'सगणमपजोगा' शयनसप्रयोगा' शयनानि च गायोगा सम्पर्काग्रति इतरेतरयोगद्वन्दः, शयन समयोगा ? इत्याह- उ उ मुहारमममुरभिवतगमग परमागम मृटफरिमव त्यभूसणगुणोरया' ऋतमुसउरकुमममुरगिचन्दनगन्यारतामधूप मुग्यम्पर्शनवभूपणगुणोपपेता', तर तुमुखानि कालोचितानि यानि परफुमुमानि, तथा-मुरभि चन्दनस्य सुगन्धो शोभनामोदयुक्तो परम् श्रेष्ठो यो पास' गन्धः सः, तथा-धूप', तथा-मुखस्पर्शानि यानि वस्त्राणि, तथा-भूपणानि च, तेषां ये गुणास्तैमपपेता स्ते श्रमणेन द्रष्टु कायितु स्मत वा न योग्या । तथा-'रमणिन्ना उज्ज-गेज्जप विस्खेवविलाससालिणीहिं) शर, भाव, ललित, विक्षेप और विलास से सुहावना स्त्रियों के साथ तया (अणुकृलपेमियाहिं ) जिनकी प्रीति मन को मुदित करने वाली होती है ऐसी (इत्यहिं सदि) स्त्रीयों के साथ भोगे गये शयन सबधी और सपर्क संबंधो पूर्वकालिक भोगों का कि जो ( उ उमुबरकुसुमसुरनि चदण लुगध-वर-वासयूव-सुहफरिस: वत्यभूसण-गुणोववेया) कालोचित कुसुमों की सुगधि आदि रूप गुणों से विशेष रूप में आकर्षक होते थे, सुरभिचदन की श्रेष्ट गध से जो मनोमोहक बने रहते थे, कृष्णागुरु आदि सुगधित द्रव्यों की धूप के ससर्ग से जिनमे से महक उड़ा करती थी तथा वस्त्र और ओभूपों के आडम्बर की छटा से जिन्हे भोगने लिए चित्त परबस लालायित घन जाया करता था, उन सब साधु को कभी भी स्मरण नहीं करना चाहिये, किसी से ऐसे भोगों की,वाते नहीं करना चाहिये और न ऐसे लिणीहिं" ७१, ला, वि२५ अने. विलासथी शोलती श्रीमानी साथे तथा " अगुकूलपेमियाहि "नी प्रति भनने माननि ४२ना डाय छ सवी " इस्थीहि सद्धि " खीमानी साथै सामवेद शयन सधासस समाधी पूर्व निगानु रे ' उ उ मुहवर-कुसुमसुरभि-चदण-सुगध-वरसाधूबसुह फरिसवस्थ-भूसण-गुणोववेया" साथित पुष्पाना सुगधी माहि३५ गुथी વિશેષ આકર્ષક થતું હતું, સુરભિ ચદનની શ્રેષ્ઠ ગ ધથી જે મનોહર બનતુ હતુ, કૃષ્ણાગરૂ આદિ સુગંધિત દ્રવ્યના ધૂપના સંસર્ગથી જેનામાં મહક ઉડયા કરતી હતી તથા વસ્ત્ર અને આભૂષણોના આડ બરની છટાથી જેને ભેગવવાને માટે મન લલચાઈ ગયા કરતુ હતુ, એ બધી વાતનુ સાધુએ કદીપણ સ્મરણ કરવું જોઈએ નહી, કોઈની સાથે એવા ભેગની વાત કરવી જોઈએ નહી,
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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