SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 916
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७७८ प्रश्नध्याकरणसूत्रे मजममूलदलियणिभ ' तपः-सयममलदकिनिमम तपः सयमयो मृलदलिकमूलद्रव्यम् मूलध-मित्यर्थः, तस्य निभम्पा यत्तत्तथा, तथा-' पचमहव्वयसरक्खिय ' पञ्चमहानतमुरक्षित पञ्चमहागानां मध्यस्थितन सुरक्षितमिव यत्त सथोक्तम् , तथा 'समिइगुत्तिगुत्त' समिनिगुप्तिगतम्-ममितिमिाईर्यासमित्या दिभिः, गुप्तिभिः मनोगुप्यादिमिश्र गुप्तम्-रक्षितम् , तथा-'हाणपरकगडसुक्यरखण' भ्यानपरमेषधम यानमे सपाटम्-तेन सुटि-शोगनतया कृत रक्षण यस्य तत् , तथा--'अज्झप्पदिण्गफलिह' यात्मदत्तपरिवम् अध्यात्ममेन-सका वएव कपाटदृढीकरणार्थ दत्तः परिष-अर्गला रसायें यस्य तत् , तथा-' सनद्धन दोच्छइयदुग्गइपह । सनद्धनद्धाच्छादितदर्गतिपयम्-सनद्रोपद्धआन्छादितश्च अर्थात् सनतो निरुद्रो दुर्गतिपयो दुर्गतिमार्गों येन तत्तपोक्तम् , तथा- मुगइपमूललियणिभ ) तप और संयम का यह वनचर्य मृल धन जैसा है। (पचमहव्वयसुरस्विय) जिस प्रकार पान पुरुषों के बीच में रहा हुआ पुरुप सुरक्षित रहता है उसी प्रकार यह ब्रमवयं भी पाच महाव्रतों के याच में स्थित होने के कारण सुरक्षित के जैसा है। (समिइयत्तिगुत्त) ईसमिति आदि पांच समितियों से एच मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों से भी इसकी मदा रक्षा होती रहती है इसलिये यह समिति और गुप्तियों से भी गुप्त-सुरक्षित कहा गया है। तथा (प्राणवरकवाड सुकयर खण) उसकी रक्षा सदा धर्म यान रूप मजबुत किवाड़ों से भी बहुत अच्छी तरह होती रहती है (अजनप्पदिणफलिह इसकी रक्षा के निमित्त इन किवाडों में मजवती लाने वाला अर्गला जैसा अध्यात्म-सद्भाव वा काम करता है। (सन्नद्धबद्धोच्हयदुग्गहपह) यह ब्रह्मचयें अपने पालक के दुर्गतिमार्ग को सर्वथा रोक देता है, (सुगइ २५ तेने मी वियसित प्यु छ तसजममूलदलियणिभ " त५ भने सयभनु मा प्रहायर्थ भूगधन समान छ “पचमवयसुरक्खिय" જે રીતે પાચ પુરુષેની વચ્ચે રહેતે પુરુષ સુરક્ષિત રહે છે, તે જ પ્રમાણે मा अभयय पर पाय मडावतोनी पाये हेसडपाया सुरक्षित छ " समिडू गुत्तिगुत्त "झा यो समिति माह पाय समितिमाथी मने मनाति माह-- ત્રણ ગુપ્તિથી પણ તેનુ સદા રક્ષણ થતું રહે છે, તે કારણે તે સમિતિ અને शुतियाथी पाए गुस-सुरक्षित वायु छ तथा “ झाणवरफनाडसुक्य रक्षण" તેનું રક્ષણ હ શા ધયે ધ્યાનરૂરી મજબૂત કમાડાથી પણ ઘણું સારી રીતે शत यया ४२ छ " अण्झपदिण्णफलिह" तनी रक्षाने निमत्त त भाडामा મજબૂતી લાવનાર આગળીયા જેવું અધ્યાત્મ-સદભાવ ત્યા કામ આપે છે " सन्नवदोच्छड्यदुग्गइपह" मा प्रभाय तेनु भवन उरना२ना गतिमान
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy