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________________ 1 6 सुदर्शिनी टीका अ ३ सू०६ 'विविक्तवमति नामक प्रथम भावनानिरूपणम् ७०५ 'लिंपण ' लेपनम् = मृत्तिकामिनितगोमयादिना न्यादिपूरणेन सकृल्लेपनम्, ' अणुलिंपण' अनुलेपनम् - शोभा पुनः पुनर्लेप नग् ज्वलन = शीतापनोदनाय वहेः प्रज्वलीकरणम्, भाण्डचालनम् = गृहस्थितभाण्डानामपरत्र स्थापनम् उपलक्षणमेतदन्यवस्तूनामपि एतेषा समाहारद्वन्द्रः एतदूप - ' अमजमो' असजम जीन निराधारूप साधुनिमित्त ' ' वर्तते ' से तारिसे ' स तादृशः 'मुत्तपरिकुट्टे' सूत्रपरिष्टः- आगमनिषिद्ध, 'हु' निश्रयेन 'अस्सए ' उपाश्रयः 'सजयाग समतानाम् ' अड्डा ' अर्थान ' वज्जेयव्त्रो' वर्जितव्यः । सयमि भिरेतादृशे जीवधनायुक्ने उपाय न कदापि नस्तव्यगिति भावः । प्रथमभानानुपसारनाह - ' एवं ' एनम् उक्तरूपेण ' विवित्तवासरसडिस मिडजोगेण ' विविक्तनासनमतिसमितियागेन - विक्ता = स्त्रीपशुपण्डकरहिता जनरहिता वा या जिसकी भीते पोतकर उज्ज्वल कर दी गई हों, जिनमें छेद वगैरह गोवरमिश्रित मिट्टी से पर दिये गये हों, तथा जो वार २ सुन्दर दिखाने के निमित्त गोमयादि मिश्रित मृत्तिका से लीपा गया हो, जहा शीत को दूर करने के लिये अग्नि जल रही हो और जहा से रखे हुए गृहस्थजनों के वर्तन उठा २ कर दूसरी जगह रखे जा रहे हो इस प्रकार का (असजमो वट्टड) जीवविराधना रूप अमयम जहा साधु के निमित्त हो रहा हो ( से तारिसे ) इस प्रकार का जो ( सुत्तपरिकुट्टे ) आगम से निषिद्ध है (उस्स) वह उपाश्रय ( सजयाण अट्ठा) साबुओ के लिये ( वज्जेयव्वो) वर्जनीय है, अर्थात् इस प्रकार के उपाश्रय में साधु को नहीं वसना चाहिये । अव सूत्रकार प्रथम भावना का उपसहार करते हुए कहते है -- (एव) उक्तरूप से इस ( विवित्तवासवसहिसमिइजोगेण) विविक्तवासवसतिसमिति के योग से - स्त्री पशु पडक से ઉજ્જ્વળ મનાવવામા આવી હાય, જેમાના છિદ્રો આદિ છાણુમિશ્રિત માટીથી પૂરી દીધા હાય, તથા જે સુદર દેખાય તે માટે વારવાર છાણુ આફ્રિ મિશ્રિત માટીથી લીપવામા આવેલ હાય, જ્યા શીત દૂર કરવાને માટે અગ્નિ ખળતા હાય, અને જ્યાથી ગૃહસ્થેાના વાસણ ઉપાડી ઉપાડીને બીજી જગ્યાએ મૂકવામા भावता होय, मी अजरनो " असजमोह " જીવ વિરાધનારૂપ અસ યમ न्या साधुने निमित्ते थ रह्यो होय, ' से तारिसे " या अस्तु ?" सुत्त परिकुट्टे " भागमद्वारा निषिद्ध छे, " ते उपाश्रय नवस्सए ८८ सजवाण अट्ठा साधुमने भाटे ' वज्जेयच्वो " वर्तनीय छे भेटले ते प्राश्ना उपाश्रयभा સાધુએ રહેવુ જોઇએ નહી હવે સૂત્રકાર પહેવી एव ઉપર કહ્યા પ્રમાણે આ 6 27 ભા“નાના ઉપમહાર કરતા विवित्तवासवस हिसमिइजोगेण उडेछ- " "" ८८ ""
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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