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________________ सुदर्शिनी टोका भ० ३ सू० १ अदत्तादाननिरमणस्वरूपनिरूपणम् ? , मिता = परिमाणरहिता, अनन्ता=अक्षया या नृगा=स्पृहा - विरामानन्याव्यवेच्छा, तयाऽनुगते ये महेच्छे=विद्यमान द्रव्यलाभनिपचे महेच्चायुक्ते मनोवचने-मनोवा णीच, ताभ्या यत् क्लुप== परधनविपयत्वेन पापरूपम् नादान = ग्रहण तत्सु निगृहीत = सुनियन्त्रित यत्र तम्, तथा 'सुसजमिन महत्वपायनिय मुसयमितमनोह स्तपादनिभृत-सुसयमितेन सम्यम् नियन्त्रितेन मनमा हस्तो पादौ च परद्रव्यादानव्यागत् नितौ=उपरतौ यन तत् । उक्तविशेषणद्वयेन परद्रव्यादाने मनोवानिरोधः प्रदर्शित | पुरस्थभूत ि इत्याह- निरगव निर्धन्य = निह्याभ्यन्तरो ग्रन्थो यस्माद् नाद्यभ्यन्तरग्रन्थिरहिन मर्त्यः, नया - 'हिर्ग' द्रव्य के अव्यय होने की जो अपरिमित एव अक्षय स्पृहालालमा होती है वह, तथा इस पृहा - लालसा से जो घडी और अविद्यमान द्रव्य के लाभ विषयक इच्छाओं की परपरा चलती है कि जिससे मनवचन की पर धन को लेने-हण करने की जो कलुक्ति प्रवृत्ति होती रहती है वह सुनियन्त्रित हो जाती है। तथा जन मन की परधन को हरण करने की कलुषित विचारधारा सुनियन्त्रित हो जाती है फिर ( सुसजमियमणस्त्राय ) उम मन के नियन्त्रित होते ही परद्रय के ग्रहण करने के निमित्त जो हाथ पैरों का व्यापार होता है वह भी उपरत-बद हो जाता है । इस तरह इन दोनों विशेषणों से यह कहा है कि इस महाव्रत के सेवन करने से, परद्रव्य करने के लिये जो मनचचन और काय का व्यापार पहिले होता था वर सर्व पद हो 'जाता है | ( अदत्तादानविरम गलवर) व दत्तानुनाल सवर कैसा है सो कहते है-( निग्गंथ ) हम महाव्रत की आराधना से बाह्य और તથા તે લાલસાથી ખીજા અવિધમાન દ્રવ્યની પ્રાપ્તિ માટેની મેાટી મેટી ઈચ્છાઓની જે પર પરા ચાવે છે કે જેથી મન વચનની પારાનુ ધન લેવાની જે દોષપૂર્ણ પ્રવૃત્તિ ચાલુ મ્હે છે તેનુ આ મહાવ્રતની આરાધનાવી નિયન્ત્રણ થાય છે, તથા જ્યારે પાકાનુ ધન હરી લેવાની મનની કલુષિત વિચારધારા સુનિયત્રિત થઈ જાય ત્યારે " ससनमियमणहत्य पायनिहुय " ते भन्नु નિયમન થતા જ પારકાનું દ્રવ્ય ગ્રહણ કરવા માટે હાથ-પગની જે પ્રવૃત્તિ ચાલે છે તે પણ મધ પડી જાય છે. આ રીતે એ મને વિશેષણાથી એ દર્શાવવામા આવ્યુ છે કે આ મહાવ્રતનુ સેવન કન્વાથી પરદ્રવ્ય લેવાને માટે મન, વચન અને કાયાની જે પ્રવૃત્તિ પહેલા ચાલતી હતી તે તન ાધ પડી જાય છે " अदत्तादानविरमणसवर " मा छत्तानुज्ञात स व छे ते हवे हे छे" निग्ाथ " मा भावतनी आराधनाथी मा भने माक्यन्तर परियह हर प्र० ९० ܙ ७१३
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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