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________________ २३ - - - - - सुवशिनी टीका अ१ स्३-४ प्रथम अधर्म-द्वारनिरूपणम् पापा:-पापकर्मशीलाः 'पाणवह प्राणवध-माणाः मन्ति येपामिति ते प्राणा:प्राणिनः 'अर्श आदित्वाद च, तेपा पो-दिसा माणथम्त जीपघात 'करेंति' कुर्वन्ति 'त' तत्पथमाचरद्वार वक्ष्यमाण 'निसामेह' निशामयत-शृणुत । हे जम्मूः ! मम कथयतः अणु इत्यर्थः, अनार्पनाद् बहुवचनम् ।।०३।। सम्प्रति 'जारिसओ' यादृशः, इति द्वार विटण्यन् माणपधस्वरूपमाह'पाणयहो' इत्यादि। ___ मूलम्-पाणतहो नाम एसो जिणेहिं भणिओ-पायो१, चंडो२, रुद्दो३, खुद्दोर, साहसिओ५, अणारिओह, णिग्घिणो७, णिस्संसोद, महाभओ९, पइभओ१० अइभआ११, बीहणओ १२, तासणओ१३, अणजओ१४, उन्वेयणओ य, णिरवयक्खो १६, णिद्धमो१७, णिप्पिवासो१८, णिकलुणो१९, निरयवास निधणगमणो२०, मोहमहसयपयट्टओ२१, मरणक्मणस्सो२२, पढम अहम्मं अव्वयस्स ॥ सू०४ ॥ नरकादिरूप फल देता है, तथा (जे वि य पाणवह करेति ) जो पापी इस प्राणवध को करते हैं यह सर विपय इस प्रथम आसवहार में कहा जावेगा। सो (त निसामेह ) हे जन् ! तुम उसको सुनो। भाव-सुधर्मा स्वामी उस गाया द्वारा यह समझा रहे हैं कि हे जअन इम हिंसारूप प्रयम आस्रवढार का स्वरूप, नाम और फल इन तीन द्वारांसे इस हिसारूप प्रथम आस्रवद्वारका निरूपण किया जायगा । तथा साथ २ में यह भी स्पष्ट कहा जायगा कि इस प्राणिवध को कौन जीव करते हैं। इस गाथा में "पाणवह" इस पद से प्राण जिनके होते हैं ऐसे प्राणी एकेन्द्रियादिक गृहीत हुए हैं। उनका जो वध है वह प्राणवध है ।। स ३ ॥ "जे विय पापा पाणनह फरेंति "२ पापी मा प्रावध ४२ छ, त समस्त विषय मा पा आसपदामा ४उवामा मात्र तो “सो त निसामेह" જ ખૂ' તુ તે સાભળ ભાવાર્થ–સુધર્માસ્વામી આ ગાથા દ્વારા એ સમજાવે છે કે હે જ બૂ! આ હિસારૂપ પ્રથમ આવદ્વારનું સ્વરૂપ, નામ અને ફળ એ ત્રણેન દ્વારે વડે નિરૂપણ કરવામાં આવશે તથા તેની સાથે એ પણ સ્પષ્ટ કરવામાં આવશે में से प्रावध यो (पापी) ७ ४२ छ म मायाम! “पाणवह" से पहथीने પ્રાણ હોય છે તેવા એકેન્દ્રિયાદિત પ્રાણી ગ્રહણ કરાયેલ છે તેમને જે વધે છે તેને પ્રાણવધ કહે છે ! સૂ ૩ |
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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