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________________ ६२० प्रभव्याकरणसूत्रे 6 glob , अनयो धर्मधाग्य, तया, 'विडी' रहना, 'कीउपयगतमथापरदयावरेण ' फीटपतगनसस्थानस्यापरेण, वन-कीटावुद्रजन्तनो नीलघु 'ट' कादयः, पतङ्गाः = मसिद्धाः इत्यादयः सस्थावराधे केन्द्रियाः तेषु दयापरस्तेन तथ - फफलताकद गम यिनी यह रिपरिपणि' पुष्पफलत्वमत्राल कन्दमूलदकमृत्तिकानी जहरितपरिवर्जितेन तत्र- पुप फल चमसिद्धम् त्व= पुष्पफलादीना त्वचा प्रवासपनाः कन्दः, गृरणादिकः, मूलम् = मूलक 'द्ग' द=जलम् मृत्तिका, वीजम् हरित. हरितकायः एते परिवर्तिता येन स तेन मुनिना ' निन्च ' नित्य 'सम्म सम्पर=पतनापूर्वम्, ईरियब्ब ' ईरितव्य - मार्गे गन्तव्यम् | 'ए' एन=अमुना मारेण प्रवर्त्तनेन खलु तस्य मुने: ' सव्वे ' सर्वे ' पाणा ' माणाः पाणिनः, 'न हीयिव्वा न हीलयितव्याः " 1 1 जिससे अच्छी तरह अवलोकन कर चल रहा हो ऐसी (टिडीए) दृष्टि से (कीडपयगतसथानरयापरेण पुष्फफलतयपवालकद्मूलद्गमहरिपरि णिच्च सम्म ईरियञ्च ) लट शग्व आदि क्षुद्र जन्तुरूप कीटों के ऊपर तथा पतगों जादि जानवरो के ऊपर, एव एकेन्द्रिय स्थावर जीवों के ऊपर ढया रखने में तत्पर बने हुए, तथा पुष्प, फल' त्वक्-छाल, मचोल, - कोंपल- पनाकुर, सूरण आदि कद मूल दकसचित्त जल, मृत्तिका - सचित्तमिट्टी, वीज और हरितकाय, इन सब सचित्तपदार्थो को अपने और पर के उपयोग में लाने का जीवनपर्यत परित्याग कर चुकने वाले ऐसे मुनिजनों को देस २ कर सदा यतना पूर्वक मार्ग मे गमन करना चाहिये । ( एव सु ) इस तरह यतनापूर्वक दृष्टि से देख देव कर चलने वाले मुनिजन के ( सव्वेषाणा ) समस्त प्राणी (ण हीलियव्वा ) अवज्ञा के विषयभूत नहीं बनते है । (न निंदि જેથી સારી રીતે અવલેા કરીને સાધુ ચાલતા હોય એવી “ दिट्ठए " दृष्टिथी “कीडपय गतसथावरद्यावरेण पुष्पफलतयपबालकदमूलद्गमट्टिय नीयहरिय परिवज्जणए णिच सम्म ईरियन " લ શખ આદિ ક્ષુદ્ર જન્તુરૂપ કીડાઓ ઉપર તથા પતગિયા આદિ જન્તુઓ ઉપર, અને એકેન્દ્રિય સ્થાવર જીવાની ઉપર ध्या राभवाने तत्थर मनेस, तथा पुण्य, इण, त्व-छास, प्रवास-अपण-पत्रा કુર, સૂરણ આદિ દમૂળ, આ બધા સચેત પદાર્થોને પેાતાના - બીજાના ઉપ ચાગમા લેવાના આજીવન પાિગ કરી નાખ્યા હાય એવા મુનિજને ને હમેશા જોઈ જોઈ ને યતના પૂર્ણાંક રસ્તા પર ચાલવુ જોઇએ एव खु રીતે યતનાપૂર્વક નજર વડે જોઇ જોઇને ચાલનાર મુનિજનને “ " " >>
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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