SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 660
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नध्याकरण यमई' महामोहमोहितमतयः-महामोइन-अष्टोदयचारित्रमोहनीयन माहिता मतिर्येपा ते तथोक्ता', 'तमोसधयारे' तमिसान्धकारे, तमित्रागनी तद्वद् योऽन्धकारी आज्ञानात्यकारस्तस्मिन् 'तस थायरमुटुमगापरेमु' उसस्यापरम्मबादरेषु तया ' पज्जत्तमपज्जत्तग एर जार' पर्याप्तापर्याप्त पा पारत् अत्रयारउन्दादिद सग्राह्यम्-पर्यासापासासाधारणमत्येकगरीरेषु तथा अण्डज पोतन -रसज-जरायुज-सस्वेदजोझिनोपपातिकेपु नारकतिर्यग्देवमनुप्पेषु यथासम्भव जरामरणरोगपहलेपु पल्योपमसागरोपमाणि यावत् आनादिकमनयदा दीर्यमबान चातुरन्तससारकान्नार ' परियति' पर्यटन्ति । एसो सो' एप सः (मयामोहमोरियमई ) उनको मति प्रकृष्ट चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से मोहित बनी रहती है। इमसे वे न तो एकदेशरूप चारित्र अगीकार कर सकते हैं और न सफलरूप चारित्र हो । अत. ऐसे प्राणी (तमोसधयारे ) रात्रि के गाढ अधकार जैसे अज्ञानान्धकार में ही पड़े रहते हे । (तसथारमुहमवायरेसु) और स, स्थावर, सूक्ष्म, चादर इनमें तथा (पज्जत्तमपज्जत्तग) पर्याप्तक अपर्याप्तक ( एवजाव) इसी प्रकार यावत् शन्द से साधारण प्रत्येक शरीर इन जीवों मे तथा अडज, पोतज, रसज, जरायुज, सस्वेदज, उद्भिज्ज जीवों में एव औप पातिक देव और नारकियों में (परियति) जन्म मरण करते हैं। स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और कर्ण ये पाच इन्द्रिया जिन जीवों में होती है वे त्रस हैं। बस नामकर्म के उदय से यह पर्याच जीयो को प्राप्त होती है। सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय जिन जीवों मे होती है वे ३थी धारमा प्रवेश शन "महया मोहमोहिय मई" भनी भति प्रष्ट ચારિક મેહનીય કર્મીના ઉદયથી મોહિત થયેલી રહે છે તેથી તેઓ એ શત ચારિત્ર અગીકાર કરી શકતા નથી અને સલરૂપ (સપૂર્ણચારિત્ર પણ मा२ श Azत नथी तेथी सवा " तमोस वयारे " शनिता ॥ अ५१२ २मन-५४१२मा ८ ५७॥ २९, "तसथावरसुट्टमवाय रेसु" स स स्था१२ सूक्ष्म, मरे मारमा, तथा पज्जत्तमपज्जत्ता" पर्या, अपर्यात, “ एव जाव ' से प्रभारी यावत् शपथी साधा२५ प्रत्ये* शरीर लामा, तथा ४४, पात४, २०, युन, सस्पेन, Green wवामा मने मो५५ति हमने नाशीमामा "परियति" प्रम! કર્યા કરે છે. જન્મ મરણ કર્યો કરે છે જે જીવોને સ્પશન, રસના, ઘાણુ, ચક્ષુ અને કર્ણ, એ પાચ ઈન્દ્રિયે હેય છે તેમને રસ કહે છે બસ નામ કમને
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy