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________________ सुर्शिनी टीका अ० ४ सू० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् ४६५ ____एव रूप सहननम्-अस्थिरचनाविशेषो चेपा ते तथा । 'समचउरससठाण सठिया' समचतुरस रास्थानमस्थिताः = नत्र समा = अन्यूनाधिकाः चतस्रः अस्रयः चतुर्दिग्यिभागोपलक्षिताः शरीरावया यत्र तत् , समचतुरस्ररव च पर्य डासनोपविष्टस्य दक्षिणस्कन्धाद् घामजानुपर्यन्त, तथा वामस्कन्धाद् दक्षिण जानुपर्यन्त समत्व, तदेव सस्थान = शरीररचनारिगेप , तेन सस्थिता: युक्ता स्ते तथा 'छायउज्जोवियगम्गा' छायोद्योतिताङ्गोपाङ्गाः - छायया = शरीर कान्त्या उयोतिनानि देदीप्यमानानि जङ्गोपाङ्गानि येपा ते तथा देदीप्यमानशरीरा., 'पमपन्छी ' प्रशस्तउवय'सुन्दराकृतयः 'निरायका' निरातङ्काः रोगरहिताः ‘कागहणी ' कङ्कग्रहणा. मकस्य-पक्षिविदोत्येव ग्रहण-गुदाशयो येपा ते तथा-नीरोगपर्चस्का 'कबोयपरिणामा' कपोतपरिणामाः कपोततुल्या जैसे--" रिमरो उ होड होप, वन पुण कीलिया वियाणाहि । उमओ माटयधो, नाराय त वियाणाहि" ॥१॥ जिस सस्थान में चतुर्दियविभागोपलक्षित शारीरिक अवयव न्यू नाधिकतारूप दोप से वर्जित होते है-अर्यात-पर्यशासन से उपविष्ट पुरुप के दक्षिणकध से लेकर वामजानुपर्यत और वामस्कध से लेकर दक्षिण जानु पर्यंत जोसमोनना रूप से शारीरिक अवयवों की रचना है उसका नास समचतुरस्रसम्यान है । (छायउज्जोवियगमगा) इनके शारीरिक अवयव अपने शरीर की कांतिरूप छाया से सदा देदीप्यमान बने रहते हैं (पसत्यच्छवी) इनकी आकृति रडी मनोज्ञ सुन्दर होती है। (निरायका) इन्हें कोई भी रोग नही होता है। (ककगहणी) इनका गुदाशय-गुत्यप्रदेश पक्षी के गुधभाग की तरह लेपरहित मलवाला होता है। (कवायपरिणामा ) उनका आहार कवृतर के आहार के परिपाक जैसा " रिसहो उ होइ पट्टो वज्ज पुण कीलिया रियाणादि । उभओ मक्डवपो, नाराय त वियाणाहि" ॥१॥ જે વ્યવસ્થામાં ચારે દિશાને અનુલક્ષીને શારીરિક અવયવો ન્યૂનતા અથવા અધિકતાના દેષથી રહિત હોય છે, એટલે કે પર્યકાસને બેઠેલા પુરૂષના જમણા ખભાથી લઈને ડાબા ઢીચણ સુધી અને ડાબા ખભાથી લઈને જમણા ઢીચણ સુધી સમાન રૂપે શારીરિક અવયવે ની જે રચના હોય છે તેને સમयतुरसस स्थान छ “छायउज्जोवियगमगा" लेमना शरीरना मा तेमना गरनी ति३५ छापाथी सहीप्यमान मनी २७ छ “पसरयच्छवी" तेमनी माति घी मनोज्ञ-सु१२ ही “निरायका " तमने शेष थता नथी "ककगहणी" तमना गुराय-गुहा पक्षीना मुहमानी गडित भगवा होय छे “ कनोयररिणामा" भने। माहा२ ४मूतराना प्र० ५९
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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