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________________ - मुदर्शिनीटीका अ ४ सू ७ यलदेवासुदेवस्वरूपनिरूपणम् કર૭ 'रिउसहस्समाणमहणा, रिपुसहस्रमानमयना: रिपुमहस्राणा मानन्ग मम्नन्ति ये ते तथा शत्रुदर्पपिसका 'साणुगोसा' सानुमोशा =आश्रितरक्षकाः 'अमच्छरी' अमत्सरिणः-परशुभस्याऽद्वेपिणः-परसुखेन मुखिन इत्यर्थः, ' अचवला' अचपला:-मनोवायापलतारहिता, अचण्डा-अकारणकोपार्जिताः 'मियमजुलप्पलावा' मितमजुलमलापा:-मितः परिमितः सार्थकः मजुन्न मनोहरः प्रलाप = आलापो येपा ते तथा परिमितमत्समधुरभाषिणः 'हसियगभीरमहरभणिया' हसितगम्भीरमधुरभणिता: इसितम्-हास्ययुक्त गम्भीर-सारगर्भ मधुर च भणितमापण येपा ते तथा 'अभुवगयवच्छला' अभ्युपगतवत्सला अभ्युपगतेपुसमीपमागतेपु वत्सला स्नेहयुक्ता. 'सरण्णा' शरण्याः शरणे साधा शरणागतरक्षकाः 'लक्सणानणगुणोववेया' लक्षणव्यञ्जनगुणोपेताः = तर लक्षणानिअपराजित शत्रुओ के मान को गलित कर देते हैं, अर्थात् प्रबल से भी प्रयल विरोधियों के वे विनाशक होते है, तथा (रिउसहस्समाणमद्दणा) हजारों शनुओ के मान को जो देखते २ क्षणभर मे नष्ट कर डालते हैं। एव (साणुकोसा) अपने आश्रित व्यक्तियो की सदा रक्षण करते रहते हैं (अमच्छरी ) दूसरों के शुभ से जिनके चित्त में थोड़ा सा भी द्वेष नहीं जगता है, अर्थात् परके सुखसे सुखी होते है (अचवला) मन, वचन एव कायसी चचलतासे जो रहित होते हे (अचडा) विना कारणके जिन्हें क्रोध नहीं आता है (मियमजुलप्पलावा) मित-सार्थक तथा मनोहर जिनका आलाप होता है, अर्थात्-जो परिमित सत्य मधुरभापी होते हैं। (हसियगभीरमहुर भणिया) जो हास्ययुक्त, सारगर्भित और मधुर भाषण करते है (अन्भुवगयवच्छला) जो अपने निकट आये हुए प्राणियोंके साथ શત્રુઓનુ માનમર્દન કરી નાખે છે, એટલે કે પ્રબળમા પ્રબળ શત્રુને પણ તેઓ નાશ ४२नार हाय , तथा "रिउसहस्ममाणमहणा" | शत्रुभाने ततामाक्षवारमा भडात उरे छ, भने ते तेभनु भानभईन ४२ छ, “साणुकोसा" घोn माश्रितानु सही २१ २ छ, “अमच्चरो" मन्यने साल यता જઈને જેમના ચિત્તમાં સહેજ પણ છેષ થતું નથી, એટલે કે તેઓ પરના सुसुभी थाना२ डाय छ, "अचवला" भन, क्यन यानी ययताथी २हित डायो, “अचडा" विना भने । थत थी, “मियमजुलप्प लावा" भित-साथ तथा भनाभना क्यन डाय छ, अथवा २ पारमित सत्य मधुर वाणी पाय छ, “ हसियगभीरमहुरभणिया" हास्ययुक्त सालित भने मधुर साप २ छ " अभुनगयवच्छला" २ पोतानी पासे मापता प्राणीशा त२५ स्नेहा डाय छ, “ सरण्णा " २२0 मावदानी
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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