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________________ মহালেই मैथुनपरिग्रहस्पा ये आरम्मा व्यापारास्तेपा यानि परणकारणानुमोदनानि करण स्वय, कारण अन्यैरनुष्ठापनम् , अनुमोदन चकतरिताटेः प्रशसन मित्येतेः प्रकारैः ' अढविह' अष्टविध यत् 'अनिद्वसम्मपिडिय' अनिष्टरमपिण्डित-दुःखदर्मसञ्चयः तदेवगुरुमारस्तेन 'माकत ' अमान्ता ये जीवास्तेषा दुर्गाण्येव दुःखान्येव यो 'जोध' जलीघा जलपूर तत्र दर अत्यय 'निवो लिज्जमाण' निगोल्यमानाः वृष्यमानाः, 'उम्मग्गनिमग्ग ' उन्मग्ननिमनाथ दुखरूपजले उर्धाऽधो गम्यमाना ये माणिनस्तः 'दुल्लहतल ' दुर्लभतलदुर्लभ दुष्प्राप्य तल यस्य स तथा त-हिंसाठीकादिपञ्चासरजनिताऽष्टविधकर्म भाराकान्तैः नानाविधदु सरूपागाधजले निमज्जनोन्मज्जन निर्जी टुप्पाराऽ कराना अनुमोदन करना, इन पूर्वोक्त प्रकारों से जो (अविर अणि कम्मर्पिडिय) दुःखद आठ प्रकारके कमेंका सचय होता है, उस कम सचय रूप मार से (अक्त) आकान्त-भारी घने दृग तथा (दुग्गजलोध) दुःख रूप जलसमूह मे (दूरनिम्बोलिज्जमाण) अत्यात हृयते हुए तथा (उमग्गनिम्मग्ग) कन इन करते हुए अर्यात ऊँचे नीचे आते हुए ऐस प्राणियों के लिये यह ससार समुद्र (दुल्लहतल) अलभ्य तलवाला है अर्थात् इस ससार समुद्र को पूर्वोक्त प्रकार के जीव पार नही कर सकते हैं । अर्थात् इस ससारसमुद्र का तल-बाह ऐसे जीवोंसे अप्राप्त है जो हिंसा, झूठ, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रहरूप आरभो के करना, कराना, एव उनकी अनुमोदना मे लगे हुए हैं, क्यों कि इन पूर्वोक्त प्रकारों से वे जीव दुखद अष्टविध कर्मों का सचय कर लेते हैं इस कारण उन पर इसका बहुत भारी भार हो जाता है। इससे वे दर जाते ४२वी, स. पूर्वरित प्रहारे २ 'अविहअणिमम्मपिडिय" 08 Pat मह भनि सत्यय थाय छ, ते भसय५३५ लारथी " अक्त" ALtdसारे मनेर तथा दुग्गजलोघ " ३५ समूडमा दूरनियोलिजमाण" अत्यत मता, तथा “ उम्मग्गनिमगा" पाशीमा उमा छम ४२ता- य नाय सावता मेवा प्राणीमान भाट मा ससार समुद्र"दुल्लहतल" मलल्य तक्ष વાળે છે એટલે કે આ સંસારસાગરને પૂર્વોક્ત પ્રકારના જીવો તરી શકતા નથી એટલે કે હિંસા, જૂઠ, અદત્તાદાન મથને, પરિગ્રહરૂપ આર કરનાર, કરાવનાર અને તેમની અનમેદના કરનાર જીને આ સ સારસાગરના કિનારો પ્રાપ્ત કરવો અશક્ય છે કારણ કે પૂર્વેત પ્રકારે તે જ આઠ પ્રકારના દુ ખદ કર્મોને સચય કરે છે તેથી તેમના પર તેમને ઘણે ભારે બે હોય છે તેનાથી તેઓ દબાઈ જાય છે, અને વિવિધ પ્રકારના
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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