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________________ सुदर्शिनीटीका य० ३ सू० १६ चौरा किं फर लभन्ते । पापिनः 'खरकरमरहिं तारिजमागदेहा 'परसरगतैस्ताट्यमानदेहा' अतिचिघणपापाणभृतचर्मकोशशतैः 'कारभरे चानुस' इति भापाप्रमिद्धैः ताडपमानदेहा ताडयमानशरीराः तरागातिगनरनारिसपरिसुडा'पातिक नरनारीसम्पस्थिताः तर-मोतिकै उन्ले नरैनारी मिश्च सपरिटता' युक्ताः मर्यादार्जितनरनारीवृन्दवेष्टिता इत्यर्थ , ' पिच्छिजता य नागरजणेण' नागरजनेन दृष्टु समागतेन प्रेक्ष्यमानाः 'ज्झनेत्थिया' ध्यनेपथ्यिका उपयोग्य नेपथ्य येपा ते वध नेपथ्यिकाः परिधनघातपत्रवेपाः, 'गरमज्झेण नगरमध्येन=पुरमध्यभागमार्गेण 'पणिज्जति ' प्रणीयन्तेनीयन्ते 'सिविणालणा' कृपणकरुणा कृपणेष्वपि करणा अतिटीना इत्यर्थः, 'अत्तागा' अाणा-बाणवर्जिता अनर्थनिवारकाभावात 'असरणा' अगरणा:शरणहीना'-योगक्षेमकारिरहितत्वात् अतएव 'अगाहा ' अनाथा: नायनिता ' अवमा' जपान्या मान्यवरहिता तथा ये बड़े अधिक पापी होते हैं। (वरकरमरहिं ) अतिचिमण पापाणसडों से भरे हुए ऐसे मैकड़ो कोड़ो की (तालिजमाणदेहा) उनके शरीर पर मारपड़ती है। तथा (वातिगनरनारिसपरिचुडा) मर्यादा वर्जित नरनारि गण से ये वेष्टित रहते है । (पिच्छिजता य नागरजणेण ) इन्हें देखने के लिये नागरिकजन आते है । ( वज्झ नेवत्थिया) इनकी वेशभूपा च ययोग्य होती है । (णगरमज्झेण पणिज्नति ) राजपुरुप इन्हें नगर के भीतर से होकर ही निकालते है। (फिविणकलणा ) उस समय ये दीनों से भी अतिदीन होते है (अत्ताणा) अनर्थ को निवारण करने वाला कोई नहीं होने से इनकी कोई रक्षा करने वाला नहीं होता है, इस लिये ये अत्राण होते ह, ( असरणा) योग, क्षेमफारी पुरुप से रहित होने के कारण ये अगरण-शरण हीन होते है। (अणाहा) अनाथ रक्षकके अभाव से ये अनाय होते है, तथा (अरधवा ) यधुओ के अभाव से गये “पावा" ते पार पापी जय "सरकरसएहिं" अतिशय Asel पत्थरना टु४ामीबी मसा से ४॥ १२यान! 'तालिजमाणदेहा" तेमना शरीर ५२ भार ५ तथा " वातिगनरनारिसपरिसुडा" भर्या हित सी पुरुषाना समृडवी तसा वीटजायेसा र "पिन्छिज्जता य नागरजणेण" तेभने जवान भाटे नागरि। माया रे छ "वज्झनेपत्थिया" तना चोपा वध्यने योग्य डायछे " णगरमज्झेण पणिज्जति” Ary-या तेभने ना ॥ ये स नय छ 'मिविणकलुणा" स्यारे ते खोजने मतिपय हानसा अनुभव छ “अत्ताणा" ते યાતનામાથી તેમને બચાવનાર કોઈ ન હોવાથી તે લેકે નાના લણવગરના હોય છે, “સ તેમને પર! આપનાર કોઈ પુરુષ ન હોવાથી તેઓ અશરણું डाय छ "अणादा" २६उने असावे तसा मनाथ हाय छ, “अवघवा "
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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