SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - খালে इय पवणधणियगोल्लियउवरुवरितरगदरियअइवेगवखुपहमोच्छरंत कत्थइगभीरविउलगजियगुंजियनिग्घायगरुय. निवडियसुदीह नीहारिदूरसुच्चतगभीरधुगधुगति सदंपडिपह रुभंतजम्खरक्खसकुहडपिसायरुसियतज्जायउवसग्गसहस्ससं कुल बहुप्पाइयभूय 'विरइयवलिहोमध्वउवयादिण्णरुहिर ऽच्चणाकरणपजयजोगपययचरियं परियतजुगंतकालकप्पोवमं दुरंतमहानईवइमहाभीमदरिसणिज्जं दुरणुचरं विसमप्पवेस दुक्खुत्तारं दुरासयलवणसलिल पुण्णं असियसिय समुच्छियगेहि हत्थतरगेहि वाहणेहि अइवइत्तासमुदमज्झे हणति गतूण जणस्स पोरा परदव्वहरा नरा निरणकपाणिरवेक्खा ॥सू० १०॥ टीका-'कायरजगहिययकपण' कातरजनहृदयकम्पन-कातरजनाना - भीरुपुरु पाणा हृदयस्य कम्पन-कम्पकारक घोर भयङ्कर यथास्यात्तथा आरसन्त-शब्दाय मान-शब्द कुर्वन्त कोलाहलसङ्कलमित्यर्थः । 'महन्मय ' प्रतिभय महाभय-अत्य न्तभयजनकम् , अत एव भयङ्कर पडिभय' प्रतिभय प्रतिमाणिन भयोत्पादकम् फिर यह समुद्र कैसा है सो करते है-'कायरजण ' इत्यादि । टीकार्थ-जो समुद्र (कापरजणहिययकपण ) कायरजनों के हृदय को कॅपा देता है (घोर ) भयकर होकर जो (आरसत ) शब्दायमान होता है (महन्भय ) देखते ही जिसे लोगों को भय का संचार होन 'लग जाता है (पडिभय ) हर एक प्राणी का रोम २ जिसकी आकृति के समक्ष भय के मारे खडा हो जाता है, और इस लिये जो (भयकर) ते मभुद्र व डाय छे तेनु वधु वर्णन उरे)-"कायरजण " त्याle २ समुद्र " कायरजणहिययकपण " " घोर " अय२ ना हयने पावी छे, “घोर " लय ४२ शतरे “ आरसत"धुधवाट ४२ छ, “ मह भय " न त बना सभा सय सत्पन्न थाय छ, “पडिभय " જેને દેખાવ જોતા જ ભયથી દરેક પ્રાણીઓના રુવાટા ખડા થઈ જાય છે,
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy